Saturday, May 30, 2009

एक संस्कृतिविहीन सरकार का सच

साहित्य संगीत कलाविहीन: साक्षात पशु पुच्छ विशाणहीन:

मंत्री पद के लिए घटक दलों की राजनीतिक खींचतान और कांग्रेस पार्टी के अंदर संतुलन बनाए रखने के प्रयास में मनमोहन सिंह सरकार ने पिछले दो दशक से काम कर रहे एक महत्वपूर्ण मंत्रालय की बलि दे दी, जिसकी वजह से अब देश में सरकारी स्तर पर संस्कृति और कला का कोई पुरसाहाल नहीं है।

राष्ट्रपति भवन से जारी मंत्रियों और उनके विभागों की आधिकारिक विस्तृत सूची में संस्कृति मंत्रालय का उल्लेख नहीं है, जबकि पिछली सरकार में इसे कैबिनेट स्तर का मंत्रालय माना गया था और अंबिका सोनी को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई थी। संस्कृति मंत्रालय के तहत पचास से अधिक संगठन काम करते हैं, जिनमें देश के सभी प्रमुख पुस्तकालय, गांधी स्मृति, नेहरू स्मारक, सालारजंग, रजा और खुदाबख्श लाइब्रेरी, राष्ट्रीय अभिलेखागार, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, राष्ट्रीय संग्रहालय और राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय शामिल हैं।

मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में कुल 79 सदस्य हैं, पर इस मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार भी किसी को नहीं सौंपा गया है। संस्कृति विभाग 1986 तक मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत था, पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने संस्कृति पर विशेष जोर देने के लिए इसे अलग मंत्रालय बनाया। उस समय पीवी नरसिंह राव मानव संसाधन विकास मंत्री थे और संस्कृति विभाग अलग होने के बाद भास्कर घोष पहले संस्कृति सचिव बने। इसी मंत्रालय ने दुनिया के कई देशों में भारत उत्सव का आयोजन किया। इसी के तहत सात क्षेत्रीय सांस्कृतिक कें्र बनाए गए ताकि देश में सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा दिया जा सके।

कला और संस्कृति के हर स्वरूप और विधा प्रोत्साहित और प्रचारित करने की जिम्मेदारी संस्कृति मंत्रालय की है। इसके अंतर्गत एशियाटिक सोसायटी, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, ललित कला अकादमी और इंदिरा गांधी कला कें्र भी आते हैं, जो स्वायत्तशासी संगठन हैं। मंत्रालय से जुड़े एक अधिकारी ने कहा कि एक दिन पहले तक अंबिका सोनी उनकी मंत्री थीं, पर अब उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं है कि इसका काम कौन देखेगा।

यह पूछे जाने पर कि क्या यह राजनीतिक जोड़-तोड़ के बीच हुई चूक है, प्रधानमंत्री की सूचना सलाहकार दीपक संधू ने कहा कि मंत्रिपरिषद का गठन काफी सोच विचार के बाद किया जाता है, इसलिए ऐसी चूक नहीं हो सकती कि किसी मंत्रालय का नाम छूट जाए। उन्होंने कहा कि जो भी मंत्रालय या विभाग किसी को आवंटित नहीं है, उसे प्रधानमंत्री के अधीन माना जाता है।

आज समाज से सभार

वापस लौटे कांग्रेस के वोटर

दलितों के बसपा से और मुसलमानों के सपा से मोहभंग ने कांग्रेस की झोली भरी।

मृगेंद्र पांडेय

लोकसभा चुना परिणाम आने के बाद एक बात तो तय हो गई कि उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने इस चुना में जाति और धर्म के बंधनों से परे हटकर ोट डाले। कांग्रेस के पास उसके परंपरागत ोटर एक बार फिर लौट आए। क्षेत्रीय दलों के उभार के बाद दलित, मुस्लिम जो बड़ी संख्या में कांग्रेस का साथ छोड़कर चले गए थे, उन लोगों ने कांग्रेस के पक्ष में ोट दिया। दलित ोटर जो बसपा के साथ थे, उनके कांग्रेस में जाने का एक अहम कारण यह रहा कि मायाती ने बड़ी संख्या में सर्ण और दागी उम्मीदारों को मैदान में उतारा। माया के इस कदम से दलित ोटरों को लगा कि उनके साथ मायाती भी अन्य राजनीतिक दलों की तरह ही बर्ता कर रहीं हैं। ोट तो उनके होंगे, लेकिन प्रतिनिधि सर्ण होगा, इसलिए बड़ी संख्या में दलित ोटर कांग्रेस के पाले में गए और माया का जादू महज 20 सीट पर ही चल पाया।

बात अगर मुसलमानों की कि जाए तो बाबरी ध्िंस के बाद मुसलमानों की पहली पसंद समाजादी पार्टी हो गई थी। सपा की नीतियों में आए बदला और कल्याण सिंह को साथ लेने के बाद धीरे-धीरे मुसलमान भी नए समीकरण खोजने लगे। परूांचल में मुसलमानों ने कई पार्टियां बनाई और अपने उम्मीदार भी खड़े किए। भले ही इन्हें सफलता न मिली हो, लेकिन यह मुसलमान सपा से छिटक गए। यह कहना कि बड़ी संख्या में मुसलमान कांग्रेस के साथ गए, यह गलत होगा। क्योंकि मुस्लिम बहुल सीट पर कांग्रेस को जीत नसीब नहीं हो पाई है। मुस्लिम ोटर कांग्रेस और बसपा दोनों मे गए, जिसके कारण कांग्रेस के तीन और बसपा के दो सांसद जीत दर्ज करने में सफल रहे। मुस्लिम बहुल मऊ, आजमगढ़ और घोसी में से किसी भी सीट पर कांग्रेस जीत दर्ज नहीं कर पाई। सर्ण मतदाता जो धिानसभा चुना में बसपा के साथ था, ह इस बार तीन भागों में बंट गया। बड़ी संख्या में ब्राह्मण ोट बसपा से छिटककर कांग्रेस और भाजपा के साथ गए। हालांकि भाजपा को इसका कोई खास फायदा नहीं हुआ, लेकिन कांग्रेस के लिए यह ोट संजीनी के रूप में काम कर गया।

कल्याण सिंह के प्रभाोले इलाकों में लोध ोटर जो भाजपा के साथ थे, सपा के साथ हो लिए। अगर लोध ोटर सपा के साथ न आते और मुस्लिम ोटरों के छिटकने का असर यह होता कि समाजादी पार्टी 12 से 15 सीट पर सिमटकर रह जाती। शायद मुलायम सिंह को इस बात का अंदाजा था, इसलिए उन्होंने कल्याण को पहले ही अपने पाले में कर लिया और प्रदेश में हार की कड़ी घूंट पीने से बच गए।

Monday, May 4, 2009

भविष्य पर टिकी उम्मीदें

मतदान का प्रतिशत कम देखकर भाजपा नेताओं को भीतर ही भीतर यह बात परेशान कर रही है कि कहीं इस बार फिर पार्टी सत्ता की दौड़ में पिछड़ तो नहीं जाएगी।

राजीव पांडे


पंद्रहवीं लोकसभा के लिए 372 सीट पर मतदान हो चुका है लेकिन अभी तक स्थिति साफ नहीं हो पाई है कि इस बार सदन का सदन का स्वरूप कैसा होगा। हालांकि दोनों बड़े दल कांग्रेस तथा भारतीय जनता पार्टी अपनी-अपनी जीत का दावा कर रहे हैं लेकिन सच्चाई तो यह है कि दल तो क्या किसी भी गठबंधन या मोर्चे को अपने बल पर सरकार बनाने के लिए 272 के अंक को छूना मुश्किल नजर आता है।

इन तीन चरणों में औसत मतदान का प्रतिशत बहुत ज्यादा नहीं रहा है, जिससे सत्तारूढ़ गठबंधन में थेड़ी खुशी है क्योंकि उनके विचार में इसका एक अर्थ यह हो सकता है कि सरकार के खिलाफ जनता में कोई नाराजगी नहीं है। अगर जनता में सरकार के खिलाफ गुस्सा होता तो वह बढ़-चढ़कर वोट देती। हालांकि विपक्षी दल इससे सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि इस बार भीषण गर्मी के कारण वोटर बाहर निकलनें से बचा। लेकिन अंदर ही अंदर भारतीय जनता पार्टी को भी यह बात परेशान कर रही है कि कहीं इस बार फिर वह सत्ता की दौड़ में पिछड़ तो नहीं जाएगी।

पहले चरण में जहां यह प्रतिशत साठ के आसपास था, वह दूसरे में कम होकर पचपन और पिछले सप्ताह हुए तीसरे चरण में पचास से नीचे चला गया। तीसरे चरण में जिन 107 सीट पर मतदान हुआ, उसमें से भाजपा के पास चौवालीस, कांग्रेस के पास उनतीस तथा अन्य के पास चौंतीस सीट थी। ये सीटें जिन राज्यों में हैं उनमें मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और बिहार भी शामिल हैं, जहां भाजपा को और अच्छा करने की उम्मीद थी। अगर यह मान भी लें कि कम मतदान का मतलब लोगों का सरकार के कामकाज से विरोध नहीं है, फिर भी कर्नाटक में श्रीराम सेना जसे कुछ मुद्दे निश्चित ही मतदाताओं को प्रभावित करेंगे। कांग्रेस इन राज्यों में अपनी स्थिति सुधारने के लिए भाजपा को कड़ी टक्कर दे रही है और स्थिति में कोई बहुत ज्यादा फर्क आएगा, ऐसा मुश्किल प्रतीत होता है।

अब जिन 171 सीट पर मतदान होना है, उनमें तमिलनाडु की 39, राजस्थान की 25, पंजाब की 13, हरियाणा की दस तथा उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की बाकी बची 32 और 28 सीट शामिल हैं। इनमें से 46 सीट कांग्रेस के पास, 33 भारतीय जनता पार्टी तथा 89 अन्य के पास थीं। इन राज्यों में भी कमोबेश यथास्थिति ही बने रहने की उम्मीद है। इसके कारण राजग के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी के देश की कमान संभालने के सपने पर एक बड़ा सवालिया निशान लगता नजर आता है।
उत्तर प्रदेश, जहां से सर्वाधिक सांसद चुन कर आते हैं, इस आशय की खबरें आ रही हैं कि यहां कांग्रेस ही नहीं, भाजपा भी अपनी स्थिति में सुधार कर सकती है। इस प्रदेश में दो भाई राहुल तथा वरुण गांधी की कोशिशों को इसका श्रेय दिया जा रहा है। हालांकि दोनों के प्रचार का तरीका एकदम अलग-अलग रहा। कांग्रेस इन खबरों से काफी प्रसन्न है कि उसका पुराना वोट बैंक वापस लौट सकता है। इसके लिए उसे वरुण गांधाी को श्रेय देना चाहिए क्योंकि उनके एक समुदाय विरोधी कड़े बयानों से ध्रुवीकरण की नई प्रक्रिया शुरू हुई है।

इस घटनाक्रम से प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रही प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को धक्का लग सकता है, क्योंकि वहां से रिपोर्ट आ रही है कि इस नए ध्रुवीकरण से मायावती की सोशल इंजीनियरिंग की योजना को नुकसान हो रहा है। इस कार्ड की बदौलत उन्होंने गत विधानसभा में जिस तरह से विरोधियों को मात दी थी वह इस बार उनके लिए बहुत अधिक मददगार साबित नही हो पा रहा है। हालांकि उनकी पार्टी के सांसदों की संख्या में बढ़ोतरी तो होगी लेकिन उतनी नहीं जिसके बल पर वह प्रधानमंत्री बनने की दावेदारी रख पाएं।

इन चुनावों में एक बार फिर छोटे तथा क्षेत्रीय दल अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं इसलिए चुनाव परिणामों के बाद इनकी पूछ एक बार फिर बढ़ जाएगी। इन दलों को लेकर तोड़फोड़ तथा सेंधमारी अभी से शुरू भी हो गई है। तेलंगाना राष्ट्र समिति, जो अभी तक तीसरे मोर्चे के साथ थी, अब यह कह रही है वह उसके साथ जाएगी जो पृथक तेलंगाना राज्य का समर्थन करेगा। इसी तरह तेलगु सुपरस्टार चिरंजीवी की पार्टी प्रजा राज्यम को तेलगु देशम के चंद्रबाबू नायडू अपने साथ लाने का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि चिरंजीवी इस बात को सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार का प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन करते हैं।

भारतीय जनता पार्टी को अभी भी यह उम्मीद है कि ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में वापस आ सकती है। तृणमूल कांग्रेस इस बार कांग्रेस के साथ मिलकर पश्चिम बंगाल में चुनाव लड़ रही है। भाजपा के प्रधानमत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने हाल ही में कोलकाता हवाई अड्डे पर संवाददाताओं से कहा कि अब यह तो ममता को ही फैसला करना है कि वह राजग में वापस आना चाहती हैं या कांग्रेस के साथ रहना चाहती हैं। यह बयान वैसा ही है, जसे कोई कुएं में गिरे लोटा तलाशने की कोशिश कर रहा हो। आडवाणी तरह-तरह से क्षेत्रीय दलों को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनका सपना पूरा होता नहीं लगता।

Sunday, March 29, 2009

हाथी की शांत चाल

वरुण का बवाल हो या फिर चौथा मोर्चा बनाने की कवायद। इन सब से अलग, इन सब से दूर, एक आवाज जो शांत है और बड़े करीने से चुपचाप दिल्ली की गद्दी की ओर बढ़ने का लगातार प्रयास कर रही है। उसे हाथी की चाल का अंदाजा है। कभी दलित की बेटी को प्रधानमंत्री बनाने से रोकने पर बवाल खड़ा करने वाली मायावती इस बार कोई कोर कसर छोड़ने के मूड में नजर नहीं आ रहीं हैं। यही कारण है कि वे लगातार अपने पार्टी के प्रत्याशियों का प्रचार कर रही हैं और बसपा के वोटरों को एकजुट करने की कोशिश में लगी हुईं हैं।


दो सप्ताह पहले दिल्ली में आकर मायावती ने तीसरे मोर्चे के उन राजनेताओं को अपनी ताकत का एहसास कराने की कोशिश की थी, जो उन्हें प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाए जाने की बात से खासे नाराज थे। यहां माया को यह आश्वासन मिला की सबसे बड़े दल के नेता को प्रधानमंत्री बनाया जाएगा। ऐसे में माया ने तय कर लिया कि बयानबाजी और इधर-उधर भटकने से अच्छा है कि सीधे मतदाताओं के सामने आया जाए और उनका मैदान मारकर सीटों की संख्या बढ़ाई जाए। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश और बिहार के तीन बड़े राजनीतिक दल सपा, राजद और लोजपा के चौथा मोर्चा बनाने पर भी मायावती की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई।

मायावती को इस बात का अंदाजा पहले से ही है कि उत्तर प्रदेश में दलितों का कोई और हितैसी कोई दलित नेता नहीं हो सकता, जब तक वह प्रदेश में हैं। उन्हें इस बात का भी अंदाजा है कि इन नेताओं के साथ आने से प्रदेश में किसी प्रकार का कोई ध्रुवीकरण नहीं होने वाला है। माया का सख्त रवैया वरुण मामले में भी देखने को मिला। उन्होंने वरुण को पूरी तरह से नजर अंदाज करने की कोशिश की, लेकिन जब उन्हें लगा की प्रदेश का सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ रहा है तो उन्होंने ¨हसा फैलाने के आरोप में उनके खिलाफ एक और प्राथमिकी दर्ज करा दी। इस प्रकार उनकी कोशिश यह रही कि वह हिंदुत्व के नए सारथी की नैया को रोकें, लेकिन उसे कोई खास तवज्जो न मिले।

Saturday, December 27, 2008

चुप्पी पर खड़े हुए कई सवाल

देश के दो बड़े दलों की चुप्पी दरअसल फायदे की तलाश में है। दोनों दलों को इस बात का एहसास है कि लोकसभा चुनाव के बाद बसपा इस बार सपा को पिछाड़कर उत्तर प्रदेश में सबसे बड़े दल के रूप में उभरेगी। ऐसे में दोनों ही दल मायावती की नाराजगी मोल लेने के मुड में नजर नहीं आ रही है।

मृगेंद्र पांडेय

उत्तर प्रदेश में एक इंजीनियर की हत्या कर दी जाती है। आरोप प्रदेश की बसपा सरकार के विधायक पर लगता है। हत्या का कारण बहन मायावती के जन्मदिन पर पैसे की उगाही बताया जा रहा है। लेकिन देश के दो बड़े राजनीतिक दल खुलकर विरोध नहीं कर रहे हैं। आखिर इसका कारण क्या है। क्यों कांग्रेस और भाजपा इस मुद्दे पर खुलकर बोलने को तैयार नहीं है। क्यों इन दलों के बड़े नेता मामले को राजनीतिक रंग देने का विरोध कर रहे हैं। इंजीनियर की मौत और मायावती के जन्मदिन के लिए विधायकों और सांसदों को दिए गए टार्गेट पर दोनों दलों की चुप्पी कई सवाल खड़े कर रही है।
प्रदेश में मायावती के खिलाफ मोर्चा खोलने का सपा कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती, लेकिन प्रदेश में उसकी सहयोगी कांग्रेस ऐसा न करके सपा को बैकफुट पर करने की कोशिश कर रही है।

दरअसल मामला केंद्र की आगामी सरकार बनाने का है। चुनाव के बाद जब किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा, उस समय बसपा ऐसी स्थिति में होगी की वह प्रभावी भूमिका निभा सके। ऐसे में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही इसके साथ गठजोड़ करने की कोशिश में लगेंगे। यही कारण है कि कांग्रेस के राजकुमार राहुल गांधी ने मामले को राजनीतिक रंग देने से कांग्रेसजनों को हिदायत दी।


वहीं हाल भगवा पार्टी का भी है। लालकृष्ण आडवाणी को देश का प्रधानमंत्री बनाने की जुगत में लगी भाजपा भी इस प्रकार को कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहती है। यही कारण है कि पार्टी ने प्रदेश स्तर पर तो बसपा के खिलाफ प्रचार करने का फैसला किया, लेकिन आला नेताओं की एक बड़ी फौज इसके खिलाफ नजर आई। भाजपा का मानना है कि इस मामले पर जोर-शोर से विरोध करने पर भी बसपा के कमजोर होने का फायदा उसे मिलने वाला नहीं है। बसपा की कमजोरी का फायदा सपा को मिलेगा जो उसके लिए घातक है। यहीं हाल कांग्रेस का है। कांग्रेस भी जानती है कि फायदा उसे नहीं होगा और सपा तो मोर्चा खोले हुए ही है। ऐसे में चुप्पी साधना ही फायदेमंद होगा।


नफा नुकसान के गणित को जनता बखुबी जानती है। वह यह भी जानती है कि जिन्हें सिर-आंखों पर चढ़ाया है, उन्हें उतारा कैसे जाता है। दरअसल यही लोकतंत्र है। ऐसे में मायावती अगर समझदारी से आगे की चाल नहीं चलती हैं तो यह जंग उनके लिए खतरनाक साबित हो सकती है। यह बात मायावती भी जानती हैं, लेकिन जनता इन दो दलों से तो सवाल कर रही है। क्या कांग्रेस और भाजपा को इस मामले पर चुप्पी साधनी चाहिए। क्या राजनीतिक हित के लिए प्रदेश में हो रही अराजकता और निर्दोष लोगों की हत्या के खिलाफ आवाज नहीं उठाना चाहिए। क्या यही लोकतंत्र है। इन सब सवालों का जवाब जनता देगी।

Friday, December 26, 2008

जल्लादों की बस्ती में हिफाजत की बातें...!


यह वैसे ही है जैसे फांसी घर से जीने की उम्मीदें रखना या हिफाजत की बातें जल्लादों से करना..उत्तर प्रदेश में बसपाई सत्ता मदांध में हैं और नौकरशाही पट्टा बांधे पालतू पशु से भी गई बीती। ...और हम आप कायर भेंड़ों से बदतर। एक इंजीनियर की हत्या का वहशियाना तौर-तरीका खुद ही यह चीख-चीख कर बता रहा है कि धन वसूली का हवस कितनी घिनौनी शक्ल ले चुका है। इस हवस और मुंबई में हमला करने वाले आतंकियों के हवस में क्या कोई फर्क पाते हैं आप? सत्ता व्यवस्था पर काबिज नेता एक इंजीनियर को पीट-पीट कर महज इसलिए मार डाले कि उसने 'उपहार-बंदोबस्त’ में कोताही क्यों की, तो क्या यह देश में बाहर से सेंध लगा रहे आतंकियों से ज्यादा घातक नहीं है?

प्रदेश भर में विधायक और नौकरशाह मिल कर 'बर्थ-डे गिफ्ट’ के लिए जो वसूली का आपराधिक अभियान चलाए बैठे हैं, वह जिस हवस का परिणाम है, क्या आप उसे देशद्रोही वहशियों से कहीं अधिक नुकसानकारी नहीं मानते?बसपा के विधायक शेखर तिवारी ने एक इंजीनियर को किस तरह मारा, समाचार चैनलों पर मरहूम इंजीनियर की लाश की बुरी दशा देखकर उसका अंदाजा लग गया होगा। इसी हत्याकांड पर बसपा के प्रवक्ता बन कर गुर्रा रहे काबीना सचिव शशांक शेखर सिंह या पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह या दूसरे नौकरशाहों की टीवी पर पोर पोर दिख रही वफादार नस्ल भी तो व्यवस्था की दुर्दशा की ही अभिव्यक्ति दे रही है! मुख्यमंत्री मायावती के इन वफादारों के चेहरों पर किसी विधायक द्वारा बर्बरतापूर्वक एक इंजीनियर को मार डाले जाने की चिंता नहीं थी बल्कि वे इस चिंता में लगातार सफाई दे रहे थे कि यह हत्या मुख्यमंत्री के जन्मदिन पर उपहार पहुंचाने की माफियाई परम्परा निभाने की विवशता में नहीं हुई। प्रदेश में शासन चलाने के नाम पर मुख्यमंत्री का भांड गायन करने वाले ये छद्म नौकरशाह यह बताते हुए तनिक शर्माते भी नहीं कि विधायक उस इंजीनियर को मरी हुई हालत में थाने पर छोड़ गया।

यह एक बात शासन-प्रशासन के बड़े लोगों के रखैलिएपन की सनद देती है। बात बहुत कटु लग सकती है। तो क्या अब भी कटु न लगे? चरम अराजकता की स्थितियों की स्वीकार्यता न केवल ऐसे सियासी और नौकरशाही वेशधारी असामाजिक तत्वों के सिर उठाते चले जाने की आजादी देता है बल्कि नागरिकों के कायर-क्लीव होने की भी तो घोषणा करता है! यही तो फर्क है मुंबई वालों और उत्तर प्रदेश वालों में... कि मुंबई वालों पर फर्क पड़ता है और उत्तर प्रदेश वालों पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता! देश समाज के अंदर घुसे छिपे बैठे भितरघातियों के खिलाफ उठ खड़े होना नागरिकों के अधिक साहसी होने की मांग करता है... या यह कहें कि अब वक्त की भी यही मांग है। मुंबई-जन-प्रतिक्रिया ने यह संदेश तो दिया ही है कि नागरिकों की मुट्ठी में ही असली ताकत है। लेकिन इसका अहसास बड़ी बात है। जो उत्तर प्रदेश और उसकी राजधानी लखनऊ के लोगों में बिल्कुल नहीं है।

लोक और लोकतंत्र की यह अजीबोगरीब चारित्रिक हकीकत है उत्तर प्रदेश की। पूरी व्यवस्था सियासत के इर्द-गिर्द परिक्रमा-रत है और पूरी सियासत अपराध-रत। इसका प्रतिबिंब पूरा प्रदेश देख रहा है, भुगत रहा है, पर मौन है। यह जो मारा जा रहा है और यह जो मौन साधे बैठा है... वह मतदाता है...। जो मनोवैज्ञानिक विकृतियों और आपराधिक चरित्रों की गिरोहबंदी को बहुमत देता है और खुद उसका शिकार हो जाता है। ठीक वैसे ही कि जैसे राक्षस आता है और हर दिन किसी को अपना शिकार बनाता है... और हम समझते हैं कि हम सुरक्षित हैं। यही मनोविज्ञान हमें कायर और भेंड़ बना रहा है। ऐसे मतदाता से नैतिक साहस की उम्मीद कैसी जिसने चुनाव में सही जनप्रतिनिधि को कभी चुना नहीं, अपनी जाति को चुना, अपने धर्म को चुना या पैसे पर बिक जाना चुना।महात्मा गांधी से लेकर जयप्रकाश नारायण तक यह बोलते चले गए कि जनप्रतिनिधियों को वापस बुला लेने का जनता को संवैधानिक अधिकार होना चाहिए। मुंबई हादसे की उत्तरकालिक जन-प्रतिक्रियाओं में भी एक बार फिर यह बात उभरी। लेकिन जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार पर होने वाली बहस आज तक बकवास ही साबित हुई है। हालांकि जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार की वकालत बेमानी ही है। जिस दिन मतदाता को नैतिक मूल्यों को सामने रख कर अपना प्रतिनिधि चुनना आ जाएगा उसी दिन जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार पर बहस अप्रासंगिक हो जाएगी...News Published in Daily News Activist on December 25, 2008

Wednesday, December 24, 2008

सपनों की खरीदार नहीं है जनता

सपनों की खरीदार नहीं है जनता

मृगेंद्र पांडेय

भारत में सपने ही सब कुछ होते हैं। विकास के सपने। अच्छे भविष्य के सपने। राजनीति में अच्छे बनने के सपने। गरीब की गरीबी के सपने। दरअसल यहां सपने ही बिकते हैं। इसे भारत की महानता कहें या फिर जनता की उदारता कि वह सपनों में ही सब कुछ पा लेती है। यहां सपने पहली बार नहीं बेचे जा रहे हैं। इससे पहले भी लोगों ने बेचे होंगे। लेकिन इस बार बारी राहुल गांधी की थी। अपनी मां सोनिया गांधी के साथ अमेठी दौरे पर राहुल ने एक बार फिर सपने बेचे।

इस बार कहानी में मायावती के नाम से जुड़ते कलाकार को तरजीह नहीं दी गई। उनके सलाहकारों ने उन्हें सुनिता के दुख में अपने सपनों कीोलक दिखाने की सलाह दी। सुनिता अमेठी लोकसभा की एक महिला है जो खुद तो कपड़े पहनती है, लेकिन उसका बच्चा बिना कपड़ा पहने था। इसके पीछे उसने राहुल गांधी को तर्क दिया कि अगर उसका बच्चा बीमार हो जाएगा तो भी वह उसे दूध पिला सकती है, लेकिन अगर वह बीमार हो जाएगी तो बच्चे को कौन दूध पिलाएगा।

राहुल और उनके रणनीतिकरों के सामने समस्य यह है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कुछ खास नहीं कर पा रही है। उनके सामने एक बड़ा सवाल यह है कि वह कौन से माध्यम हो सकते हैं, जिससे जनता को अपनी ओर, आपनी पार्टी की ओर और कांग्रेस की नीतियों की ओर आकृषित किया जाए। इसी दुविधा में राहुल लगातार बुंदेलखंड, पूर्वाचल और अमेठी का दौरा कर रहे हैं। बुंदेलखंड के दौरे पर राहुल दलितों के घरों में गए। यह उनकी उस वोट बैंक की रणनीति का हिस्सा है, जिस पर अब मायावती का कब्जा है। इस बार भी अमेठी में उन्होंने अपने उसी पुराने वोटर पर निशाना साधा है। उन्हें अपने सपनों के बारे में बताया। और उम्मीद जताई की उनके सपने साकार करने में वह वोटबैंक उनका साथ देगा।

 

 

ऐसा नहीं है कि राहुल पहले कांग्रेसी हैं जो सपने बेच रहे हों। उन्होंने अपने भाषण के दौरान ही कह दिया कि उनसे लोगों ने पूछा की आपकी दादी का सपना था, अपके पिता का सपना था, आपका क्या सपना है। राहुल ने अपने सपने लोगों को बताए भी, लेकिन उसमें वहीं बातें थी जो सभी राजनीतिक दल जनता का वोट अपनीोोली में करने के लिए करते हैं। दरअसल राहुल आज भी यह मानकर चल रहे हैं कि जनता केवल कोरे वायदों पर ही कांग्रेस को वोट देगी। लेकिन उन्हें यह समाना होगा कि उत्तर प्रदेश में उनका मुकाबला एक ऐसे दल से है, जो लंबे समय से दलितों और गरीबों की बात करती रही है और अकेले अपने दम पर प्रदेश की सत्ता पर काबिज भी है। ऐसे में उनके सपनों का मुकाबला ऐसे यर्थाथ से है, जिसका सामना सिर्फ कोरे वादों से नहीं किया जा सकता। इसके लिए चाहिए एक सोच, एक दृष्टि, एक विजन और ऐसी नीतियां जिनका असर जमीन स्तर पर तो कम से कम दिखाई देता ही हो।