Saturday, December 27, 2008

चुप्पी पर खड़े हुए कई सवाल

देश के दो बड़े दलों की चुप्पी दरअसल फायदे की तलाश में है। दोनों दलों को इस बात का एहसास है कि लोकसभा चुनाव के बाद बसपा इस बार सपा को पिछाड़कर उत्तर प्रदेश में सबसे बड़े दल के रूप में उभरेगी। ऐसे में दोनों ही दल मायावती की नाराजगी मोल लेने के मुड में नजर नहीं आ रही है।

मृगेंद्र पांडेय

उत्तर प्रदेश में एक इंजीनियर की हत्या कर दी जाती है। आरोप प्रदेश की बसपा सरकार के विधायक पर लगता है। हत्या का कारण बहन मायावती के जन्मदिन पर पैसे की उगाही बताया जा रहा है। लेकिन देश के दो बड़े राजनीतिक दल खुलकर विरोध नहीं कर रहे हैं। आखिर इसका कारण क्या है। क्यों कांग्रेस और भाजपा इस मुद्दे पर खुलकर बोलने को तैयार नहीं है। क्यों इन दलों के बड़े नेता मामले को राजनीतिक रंग देने का विरोध कर रहे हैं। इंजीनियर की मौत और मायावती के जन्मदिन के लिए विधायकों और सांसदों को दिए गए टार्गेट पर दोनों दलों की चुप्पी कई सवाल खड़े कर रही है।
प्रदेश में मायावती के खिलाफ मोर्चा खोलने का सपा कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती, लेकिन प्रदेश में उसकी सहयोगी कांग्रेस ऐसा न करके सपा को बैकफुट पर करने की कोशिश कर रही है।

दरअसल मामला केंद्र की आगामी सरकार बनाने का है। चुनाव के बाद जब किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा, उस समय बसपा ऐसी स्थिति में होगी की वह प्रभावी भूमिका निभा सके। ऐसे में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही इसके साथ गठजोड़ करने की कोशिश में लगेंगे। यही कारण है कि कांग्रेस के राजकुमार राहुल गांधी ने मामले को राजनीतिक रंग देने से कांग्रेसजनों को हिदायत दी।


वहीं हाल भगवा पार्टी का भी है। लालकृष्ण आडवाणी को देश का प्रधानमंत्री बनाने की जुगत में लगी भाजपा भी इस प्रकार को कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहती है। यही कारण है कि पार्टी ने प्रदेश स्तर पर तो बसपा के खिलाफ प्रचार करने का फैसला किया, लेकिन आला नेताओं की एक बड़ी फौज इसके खिलाफ नजर आई। भाजपा का मानना है कि इस मामले पर जोर-शोर से विरोध करने पर भी बसपा के कमजोर होने का फायदा उसे मिलने वाला नहीं है। बसपा की कमजोरी का फायदा सपा को मिलेगा जो उसके लिए घातक है। यहीं हाल कांग्रेस का है। कांग्रेस भी जानती है कि फायदा उसे नहीं होगा और सपा तो मोर्चा खोले हुए ही है। ऐसे में चुप्पी साधना ही फायदेमंद होगा।


नफा नुकसान के गणित को जनता बखुबी जानती है। वह यह भी जानती है कि जिन्हें सिर-आंखों पर चढ़ाया है, उन्हें उतारा कैसे जाता है। दरअसल यही लोकतंत्र है। ऐसे में मायावती अगर समझदारी से आगे की चाल नहीं चलती हैं तो यह जंग उनके लिए खतरनाक साबित हो सकती है। यह बात मायावती भी जानती हैं, लेकिन जनता इन दो दलों से तो सवाल कर रही है। क्या कांग्रेस और भाजपा को इस मामले पर चुप्पी साधनी चाहिए। क्या राजनीतिक हित के लिए प्रदेश में हो रही अराजकता और निर्दोष लोगों की हत्या के खिलाफ आवाज नहीं उठाना चाहिए। क्या यही लोकतंत्र है। इन सब सवालों का जवाब जनता देगी।

Friday, December 26, 2008

जल्लादों की बस्ती में हिफाजत की बातें...!


यह वैसे ही है जैसे फांसी घर से जीने की उम्मीदें रखना या हिफाजत की बातें जल्लादों से करना..उत्तर प्रदेश में बसपाई सत्ता मदांध में हैं और नौकरशाही पट्टा बांधे पालतू पशु से भी गई बीती। ...और हम आप कायर भेंड़ों से बदतर। एक इंजीनियर की हत्या का वहशियाना तौर-तरीका खुद ही यह चीख-चीख कर बता रहा है कि धन वसूली का हवस कितनी घिनौनी शक्ल ले चुका है। इस हवस और मुंबई में हमला करने वाले आतंकियों के हवस में क्या कोई फर्क पाते हैं आप? सत्ता व्यवस्था पर काबिज नेता एक इंजीनियर को पीट-पीट कर महज इसलिए मार डाले कि उसने 'उपहार-बंदोबस्त’ में कोताही क्यों की, तो क्या यह देश में बाहर से सेंध लगा रहे आतंकियों से ज्यादा घातक नहीं है?

प्रदेश भर में विधायक और नौकरशाह मिल कर 'बर्थ-डे गिफ्ट’ के लिए जो वसूली का आपराधिक अभियान चलाए बैठे हैं, वह जिस हवस का परिणाम है, क्या आप उसे देशद्रोही वहशियों से कहीं अधिक नुकसानकारी नहीं मानते?बसपा के विधायक शेखर तिवारी ने एक इंजीनियर को किस तरह मारा, समाचार चैनलों पर मरहूम इंजीनियर की लाश की बुरी दशा देखकर उसका अंदाजा लग गया होगा। इसी हत्याकांड पर बसपा के प्रवक्ता बन कर गुर्रा रहे काबीना सचिव शशांक शेखर सिंह या पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह या दूसरे नौकरशाहों की टीवी पर पोर पोर दिख रही वफादार नस्ल भी तो व्यवस्था की दुर्दशा की ही अभिव्यक्ति दे रही है! मुख्यमंत्री मायावती के इन वफादारों के चेहरों पर किसी विधायक द्वारा बर्बरतापूर्वक एक इंजीनियर को मार डाले जाने की चिंता नहीं थी बल्कि वे इस चिंता में लगातार सफाई दे रहे थे कि यह हत्या मुख्यमंत्री के जन्मदिन पर उपहार पहुंचाने की माफियाई परम्परा निभाने की विवशता में नहीं हुई। प्रदेश में शासन चलाने के नाम पर मुख्यमंत्री का भांड गायन करने वाले ये छद्म नौकरशाह यह बताते हुए तनिक शर्माते भी नहीं कि विधायक उस इंजीनियर को मरी हुई हालत में थाने पर छोड़ गया।

यह एक बात शासन-प्रशासन के बड़े लोगों के रखैलिएपन की सनद देती है। बात बहुत कटु लग सकती है। तो क्या अब भी कटु न लगे? चरम अराजकता की स्थितियों की स्वीकार्यता न केवल ऐसे सियासी और नौकरशाही वेशधारी असामाजिक तत्वों के सिर उठाते चले जाने की आजादी देता है बल्कि नागरिकों के कायर-क्लीव होने की भी तो घोषणा करता है! यही तो फर्क है मुंबई वालों और उत्तर प्रदेश वालों में... कि मुंबई वालों पर फर्क पड़ता है और उत्तर प्रदेश वालों पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता! देश समाज के अंदर घुसे छिपे बैठे भितरघातियों के खिलाफ उठ खड़े होना नागरिकों के अधिक साहसी होने की मांग करता है... या यह कहें कि अब वक्त की भी यही मांग है। मुंबई-जन-प्रतिक्रिया ने यह संदेश तो दिया ही है कि नागरिकों की मुट्ठी में ही असली ताकत है। लेकिन इसका अहसास बड़ी बात है। जो उत्तर प्रदेश और उसकी राजधानी लखनऊ के लोगों में बिल्कुल नहीं है।

लोक और लोकतंत्र की यह अजीबोगरीब चारित्रिक हकीकत है उत्तर प्रदेश की। पूरी व्यवस्था सियासत के इर्द-गिर्द परिक्रमा-रत है और पूरी सियासत अपराध-रत। इसका प्रतिबिंब पूरा प्रदेश देख रहा है, भुगत रहा है, पर मौन है। यह जो मारा जा रहा है और यह जो मौन साधे बैठा है... वह मतदाता है...। जो मनोवैज्ञानिक विकृतियों और आपराधिक चरित्रों की गिरोहबंदी को बहुमत देता है और खुद उसका शिकार हो जाता है। ठीक वैसे ही कि जैसे राक्षस आता है और हर दिन किसी को अपना शिकार बनाता है... और हम समझते हैं कि हम सुरक्षित हैं। यही मनोविज्ञान हमें कायर और भेंड़ बना रहा है। ऐसे मतदाता से नैतिक साहस की उम्मीद कैसी जिसने चुनाव में सही जनप्रतिनिधि को कभी चुना नहीं, अपनी जाति को चुना, अपने धर्म को चुना या पैसे पर बिक जाना चुना।महात्मा गांधी से लेकर जयप्रकाश नारायण तक यह बोलते चले गए कि जनप्रतिनिधियों को वापस बुला लेने का जनता को संवैधानिक अधिकार होना चाहिए। मुंबई हादसे की उत्तरकालिक जन-प्रतिक्रियाओं में भी एक बार फिर यह बात उभरी। लेकिन जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार पर होने वाली बहस आज तक बकवास ही साबित हुई है। हालांकि जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार की वकालत बेमानी ही है। जिस दिन मतदाता को नैतिक मूल्यों को सामने रख कर अपना प्रतिनिधि चुनना आ जाएगा उसी दिन जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार पर बहस अप्रासंगिक हो जाएगी...News Published in Daily News Activist on December 25, 2008

Wednesday, December 24, 2008

सपनों की खरीदार नहीं है जनता

सपनों की खरीदार नहीं है जनता

मृगेंद्र पांडेय

भारत में सपने ही सब कुछ होते हैं। विकास के सपने। अच्छे भविष्य के सपने। राजनीति में अच्छे बनने के सपने। गरीब की गरीबी के सपने। दरअसल यहां सपने ही बिकते हैं। इसे भारत की महानता कहें या फिर जनता की उदारता कि वह सपनों में ही सब कुछ पा लेती है। यहां सपने पहली बार नहीं बेचे जा रहे हैं। इससे पहले भी लोगों ने बेचे होंगे। लेकिन इस बार बारी राहुल गांधी की थी। अपनी मां सोनिया गांधी के साथ अमेठी दौरे पर राहुल ने एक बार फिर सपने बेचे।

इस बार कहानी में मायावती के नाम से जुड़ते कलाकार को तरजीह नहीं दी गई। उनके सलाहकारों ने उन्हें सुनिता के दुख में अपने सपनों कीोलक दिखाने की सलाह दी। सुनिता अमेठी लोकसभा की एक महिला है जो खुद तो कपड़े पहनती है, लेकिन उसका बच्चा बिना कपड़ा पहने था। इसके पीछे उसने राहुल गांधी को तर्क दिया कि अगर उसका बच्चा बीमार हो जाएगा तो भी वह उसे दूध पिला सकती है, लेकिन अगर वह बीमार हो जाएगी तो बच्चे को कौन दूध पिलाएगा।

राहुल और उनके रणनीतिकरों के सामने समस्य यह है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कुछ खास नहीं कर पा रही है। उनके सामने एक बड़ा सवाल यह है कि वह कौन से माध्यम हो सकते हैं, जिससे जनता को अपनी ओर, आपनी पार्टी की ओर और कांग्रेस की नीतियों की ओर आकृषित किया जाए। इसी दुविधा में राहुल लगातार बुंदेलखंड, पूर्वाचल और अमेठी का दौरा कर रहे हैं। बुंदेलखंड के दौरे पर राहुल दलितों के घरों में गए। यह उनकी उस वोट बैंक की रणनीति का हिस्सा है, जिस पर अब मायावती का कब्जा है। इस बार भी अमेठी में उन्होंने अपने उसी पुराने वोटर पर निशाना साधा है। उन्हें अपने सपनों के बारे में बताया। और उम्मीद जताई की उनके सपने साकार करने में वह वोटबैंक उनका साथ देगा।

 

 

ऐसा नहीं है कि राहुल पहले कांग्रेसी हैं जो सपने बेच रहे हों। उन्होंने अपने भाषण के दौरान ही कह दिया कि उनसे लोगों ने पूछा की आपकी दादी का सपना था, अपके पिता का सपना था, आपका क्या सपना है। राहुल ने अपने सपने लोगों को बताए भी, लेकिन उसमें वहीं बातें थी जो सभी राजनीतिक दल जनता का वोट अपनीोोली में करने के लिए करते हैं। दरअसल राहुल आज भी यह मानकर चल रहे हैं कि जनता केवल कोरे वायदों पर ही कांग्रेस को वोट देगी। लेकिन उन्हें यह समाना होगा कि उत्तर प्रदेश में उनका मुकाबला एक ऐसे दल से है, जो लंबे समय से दलितों और गरीबों की बात करती रही है और अकेले अपने दम पर प्रदेश की सत्ता पर काबिज भी है। ऐसे में उनके सपनों का मुकाबला ऐसे यर्थाथ से है, जिसका सामना सिर्फ कोरे वादों से नहीं किया जा सकता। इसके लिए चाहिए एक सोच, एक दृष्टि, एक विजन और ऐसी नीतियां जिनका असर जमीन स्तर पर तो कम से कम दिखाई देता ही हो।

Saturday, December 13, 2008

बदल रहा है मतदाताओं का मिजाज

मृगेंद्र पांडेय


जनता सब जानती है। विकास और विकास के दावों में अंतर भी उसे बखूबी पता है। यही कारण है कि पांच राज्यों में जिन नेताओं ने विकास को तरजीह दी, उन्हें जनता ने एक बार फिर कमान सौंपी। उन नेताओं को जो सिर्फ आक्रामक प्रचार और बयानबाजी में उलङो रहे उनके परिणामों को भी जनता ने उलझन में डाल दिया। यह मतदाताओं के बदलते मिजाज का संकेत है।

शांत सौम्य माने जाने वाली शीला दीक्षित हों या फिर छत्तीसगढ़ के रमण सिंह, दोनों को ही जनता ने एक बार फिर कमान सौंपी है। शीला को लेकर तो भाजपा इस कदर आश्वस्त थी कि अब वह दिल्ली की गद्दी पर विराजमान नहीं होंगी, लेकिन शीला के विकास और जनता के विश्वास के सहारे वह एक बार फिर दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो गईं। छत्तीसगढ़ में विकास पुरुष की छवि बनाए रखने वाले रमन सिंह का अजीत जोगी का आक्रामक प्रचार भी नुकसान नहीं कर पाया। पांच साल सरकार में रहने के बावजूद किसी प्रकार के भ्रष्टाचार के आरोप से मुक्त रहना उनकी सबसे बड़ी कामयाबी रही। मध्यप्रदेश में घोटालों के आरोपों में घिरे शिवराज ने भी कभी आक्रामकता को तरजीह नहीं दी।

संघ का समर्थन और समर्थकों के लगातार संपर्क में रहने का परिणाम है कि वे एक बार फिर सरकार बनाने वाले हैं। पिछले चुनाव में भाजपा को सत्ता में पहुंचाने वाली उमा भारती का नगाड़ा भी नहीं बजा। शिवराज सरकार पर लगाए गए उनके आरोपों को जनता ने नकार दिया। इसका परिणाम रहा कि वे अपनी सीट भी नहीं बचा पाईं।
राजस्थान में गुर्जर-मीणा संघर्ष, पानी के लिए किसानों का आंदोलन, महलों को बेचने का मामला और विरोधी दलों के ‘एट पीएम नो सीएमज् के नारे ने वसुंधरा राजे को बाहर कर दिया। यहां भी वसुंधरा ने आक्रामक प्रचार किया, लेकिन जब उनके विरोध की कमान पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने संभाली तो मामला एकदम पलट गया। गहलोत ने बिजली, पानी, शराब की दुकानों के साथ स्थानीय मामले को जिस बेबाकी से रखा, उससे वसुंधरा की हवा निकल गई।

परिणाम आने से पहले माना जा रहा था कि भाजपा को इस गढ़ से बाहर निकालना काफी मुश्किल होगा, लेकिन नतीजों ने सभी को एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है। अगर ऐसा ही रहा तो आने वाले चुनावों में बड़ी संख्या में आ रहे अपराधियों और बहुबलियों का सफाया भी हो सकता है। यही लोकतंत्र को और मजबूत करने में कारगर भी होगा।

Friday, August 29, 2008

विदेशों में भी पसरने लगी माया की माया

माया की माया को देश ही नहीं विश्व में भी लोकप्रियता मिलती नजर आ रही है। मायावती जहां सोनिया गांधी से बैर लेकर देश की पहली दलित महिला प्रधानमंत्री बनने के सपने पाले बैठी हैं, वहीं फोब्स की सूची में उनका नाम आने से उनके हौसले बढ़े हैं। मायावती को फॊर्ब्स पत्रिका ने विश्व की 100 ताकतवर महिलाओं में शामिल किया है। खास बात यह है कि सोनिया गांधी की रेटिंग में गिरावट दर्ज की गई है। छठवें स्थान से फिसलकर वे 21वें स्थान पर पहुंच गई है। मायावती को पत्रिका ने 59वें पायदान पर रखा है।

मायावती की इस उपलब्धि के पीछे उनके राजनीतिक कौशल और सोशल इंजीनियरिंग को माना जा रहा है। पत्रिका ने माया के वैक्तित्व का बखान करते हुए लिखा है कि उन्होंने देश की सबसे ताकतवर महिला सोनिया गांधी की सत्ता को हिलाने और उनकी पोजिशन को चुनौती दी है। मायावती ने हाल ही में लोकसभा में विश्वासमत के दौरान कांग्रेस के नाक में दम कर दिया था। सभी राजनीतिक दलों ने आस लगाई थी कि सबसे ज्यादा सांसद अगर किसी पार्टी के टूटेंगे तो वह बसपा के होंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं। बल्कि मायावती ने उलटे सपा के शहिद सिद्धकी को अपने पाले में जरूर कर लिया। इससे पहले कांग्रेस के अखिलेश दास और नरेश अग्रवाल भी पार्टी में आ चुके हैं।

जानकारों का मानना है कि मायावती का कद अचानक नहीं बढ़ा है। इसके पीछे एक रणनीति थी जो लगातार काम कर रही थी। चाहे वह कांशीराम के समय हो या फिर मायावती के समय। बसपा ने अपने पहले चरण में दलितों को यह बताने की कोशिश की कि वे भी समाज में उसी तरह जीने के हकदार हैं जितने अन्य लोग। इसका परिणाम यह रहा कि मायावती को देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश की बागडोर संभालने का मौका मिला। उस समय मायावती की उम्र महज 39 वर्ष थी। दलित वोटरों ने मायावती को पहली दलित महिला मुख्यमंत्री तो बना दिया लेकिन वे ज्यादा समय तक काम नहीं कर पाईं और सरकार गिर गई। इस समय मायावती और उनकी बसपा ने सवर्णो को जमकर गरियाया। तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जुते चार का नारा दिया गया।

अगले चरण में मायावती और बसपा को यह समझ में आने लगा की बराबरी के बाद सत्ता को स्थिर रखने के लिए सवर्णो को साथ लेना होगा। राजनीति में माहिर माया ने सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला तय किया। सवर्ण जो लंबे समय से दलित और मुसलिम तुष्टिकरण के कारण हासिए पर जा रहे थे, उन्होंने झट मायावती का दमन थाम लिया। माया ने इस बार उनको बराबरी का सम्मान देने की बात कही। उत्तर प्रदेश में अपने दम पर सरकार बनाकर दलितों और सवर्णो ने मायावती को यह बता दिया कि इस समीकरण का देश में कोई काट नहीं है।

अब फॊर्ब्स पत्रिका ने भी मायावती को टाप 100 लेकर उनके हौंसले को और बुलंद किया है। उत्तर प्रदेश सहित देश के अन्य भागों में उनके समर्थकों में जोरदार उत्साह का माहौल है। पहले से ही जोश से लबरेज माया को मिले इस टानिक का अन्य राजनीतिक दल किस प्रकार काट खोजते हैं यह आने वाले समय में देखने को मिलेगा।

Saturday, August 9, 2008

माया ने दिखाई माया एक उत्तराधिकारी बनाया

मायावती ने आज ये कहकर सबको चौंका दिया कि उन्होंने अपना उत्तराधिकारी चुन लिया है। मायावती ने ये भी कहा कि उनका उत्तराधिकारी दूसरी पार्टियों की तरह उनके ही परिवार का नहीं होगा। उसकी उम्र १८ साल है और वह उनकी ही जाति का है। माया की यह घॊषणा एक तरह से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर सीधी चोट है।


मायावती ने दहाड़कर कहा कि उनका राजनीतिक उत्तराधिकारी एक सामान्य दलित परिवार से होगा। उसमें भी वो चमार जाति से है। उसे वो पिछले कुछ सालों से तैयार कर रही हैं लेकिन उसका नाम उनके मरने या गंभीर रूप से बीमार होने की स्थिति में ही पता चलेगा। साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि उसका नाम उनके अलावा पार्टी के सिर्फ दो लोगों को पता है।

अब मायावती से 18 साल छोटा उनका ये राजनीतिक उत्तराधिकारी सचमुच कहीं है या फिर वो सिर्फ शगूफा छोड़ रही हैं। इसकॊ लेकर राजनीतिक हलकॊ में चर्चा जॊरॊं पर है। क्योंकि वो अभी नाम किसी को नहीं बताने जा रहीं। लेकिन इतना तो तय है कि बसपा के आंख बंदकर हाथी पर ठप्पा मारने वाले कार्यकर्ताओं को इतना संबल तो बहनजी ने दे ही दिया है कि बहनजी पर कोई विपदा आई भी तो, दलित समाज का एक नया भाईजी उनकी अगुवाई के लिए तैयार है।

जानकारॊं की माने तॊ माया की यह घॊषणा लखनऊ से दिल्ली पहुंचाने के लिए कार्यकर्ताओं कॊ जॊश में लाने का संकेत हॊ सकती है। लेकिन इन सब के बीच वे कार्यकर्ता जॊ सवर्ण समुदाय से आते हैं उनके लिए निराशाजनक है। उन्हे अगर यह लगने लगे की माया के बाद उनका पार्टी में कॊइ रखवाला नहीं रहेगा तॊ इसका असर विपरित पड़ सकता है और इसका फायदा सपा कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियां उठा सकती है।

Wednesday, August 6, 2008

सपा का ब्राह्मण तुष्टीकरण...

देश की राजनीति में कभी किनारे कर दिए गए ब्राह्मण नेताओं की पूछ अचानक बढ़ गई है. ऐसे में उन ब्राह्मण नेताओं के जन्मदिन भी मनाए जा रहे हैं जिनको कुछ दिनों पहले तक उनकी पार्टी के लोग पूछते भी नहीं थे. राजनीति इस कदर करवट बदलेगी, शायद उन राजनेताओं को भी यह नहीं पता है जो काफी लंबे समय से हासिए पर हैं.

समाजवादी पार्टी में अनजाना चेहरा बन चुके जनेश्वर मिश्र का चेहरा अचानक मीडिया की रौनक बना. कारण था उनका जन्मदिन. लोगों को याद दिलाया गया कि ये वही शख्स हैं जिन्हें लोग कभी छोटे लोहिया के नाम से जानते थे. अचानक जनेश्वर मिश्र को लगा कि वे पुराने दिनों में लौट आए हैं. वही जोश, वहीं रुतबा, वही रौनक. मौके की नजाकत को भांपकर छोटे लोहिया ने बयान भी दे दिया कि सपा सरकार में शामिल नहीं होगी.

छोटे लोहिया का इस तरह का बयान हाल-फिलहाल के वर्षों में नहीं आया. फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि समाजवादी पार्टी के चेहरे रहे मुलायम और अमर सिंह की तरफ से मीडिया का कैमरा मुड़कर ज्ञानेश्वर की ओर पहुंच गया.

दरअसल, जनेश्वर का जन्मदिन मनाना तो एक बहाना है. जानकारों की मानें तो यह सपा का मायावती से लड़ने का एक हथियार है. मायावती की सोशल इंजीनियरिंग का जवाब सपा ने जनेश्वर मिश्र के रूप में खोजने की कोशिश की है. इसका परिणाम रहा कि मिश्र के जन्मदिन पर कैसरबाग कार्यालय से लेकर कानपुर, बनारस, इलाहाबाद, मिर्जापुर, झांसी सहित कई जिलों में कार्यक्रमों का आयोजन किया गया.

दरअसल, मामला ब्राह्मणों के तुष्टीकरण का है. मुलायम को लगने लगा है कि प्रदेश में यादव+मुसलमान गठजोड़ से 39 सीटें निकाली जा सकती हैं और इसमें ब्राह्मण का तड़का लग जाए तो मायावती के प्रधानमंत्री बनने के सपनों को तोड़ा जा सकता है. इसके लिए वो कोई भी हथियार आजमाने को तैयार भी नजर आ रहे हैं.

मुलायम जनेश्वर को मायावती के सतीश मिश्र की काट के रूप में देख रहे हैं लेकिन यह तो समय और उत्तर प्रदेश की जनता ही बताएगी कि सपा की ब्राह्मणों को रिझाने की कोशिश कितनी सफल साबित होती है.

Sunday, July 27, 2008

इस जीत के बाद!

विश्वास मत की बहस और विवाद की धूल जमने के साथ ही राजनीतिक दलों ने अब अपने घरों की सुध लेना शुरू कर दिया है। विपक्ष ने अपने बागी सांसदों को पार्टी से निकाल दिया। सरकार ने विश्वास मत के लिए समर्थन के समय किए वायदे पूरे करने का काम शुरू कर दिया है।


सबसे पहले सबसे अहम सहयोगी द्रविड़ मुनेत्र कषगम की मांग पूरा करने के लिए सेतु सम्रुम पर सुप्रीम कोर्ट में एक नई बात कही कि राम ने ही सेतु तोड़ दिया था। सरकार का यह दावा विश्वास मत के बाद से मूर्छित पड़ी भाजपा को ताजा हवा के झोंके के समान लगा होगा। संसद में बहस के समय जो राजनीतिक ध्रुवीकरण नजर आया मोटे तौर पर उसके अगले लोकसभा चुनाव तक जारी रहने की संभावना है। विश्वास मत में भले ही कांग्रेस और उसके सहयोगी दल जीते हों पर उसका परोक्ष लाभ विपक्ष को भी हुआ है।


सरकार के लिए इस जीत ने संभावना और संकट दोनों के द्वार खोल दिए हैं। एक बात तय मानना चाहिए कि अब चुनाव अपने नियत समय पर होंगे। सरकार के पास अगले नौ महीने मतदाता को लुभाने के लिए हैं। विधानसभा चुनावों में लगातार हार से कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में आई निराशा इस जीत से छंटेगी। पार्टी नए उत्साह के साथ एक बार फिर जुटेगी।


कांग्रेस के लिए संकट उसके सहयोगी पैदा करेंगे। चुनाव के नजरिए से अब हर घटक अपनी जायज- नाजायज मांगे पूरी करवाने के लिए दबाव डालेगा। द्रमुक ने इसकी शुरुआत कर दी है। सरकार की नई सहयोगी समाजवादी पार्टी के लिए असली चुनावी रण क्षेत्र उत्तर प्रदेश है और लक्ष्य मायावती का राजनीतिक मानमर्दन है। जसे विश्वास मत में समाजवादी पार्टी ने हर तरह के हथकंडे अपनाने में कोई संकोच नहीं किया। वैसे ही वे चाहेंगे कि केंद्र सरकार की ताकत का हर तरह इस्तेमाल मायावती और बहुजन समाज पार्टी को घेरने में हो। इसके लिए समाजवादी पार्टी कुछ दिनों में केंद्रीय गृह मंत्रालय की मांग करे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।


विश्वास मत में विपक्ष की हार ने मुख्य विपक्षी दल भाजपा को अपने घाव सहलाने का समय दे दिया है। सत्तारूढ़ गठबंधन ने सबसे ज्यादा सेंध भाजपा के ही घर में लगाई। कांग्रेस का विकल्प होने का दावा करने वाली भाजपा को पता ही नहीं था कि उसके अपने घर में क्या हो रहा है। कर्नाटक जहां अभी दो महीने पहले वह विधानसभा चुनाव जीती है वहां से भी तीन सांसद पार्टी का साथ छोड़ गए। मान लीजिए कि सरकार विश्वास मत हार जाती तो क्या होता। उस हालत में मायावती, वामदल यूएनपीए और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सबके निशाने पर भाजपा होती।


हार ने भाजपा को इस हमले से बचा लिया। पार्टी में एेसे लोगों की कमी नहीं है जो सरकार के जीतने से खुश हैं। उनका मानना है कि इससे आडवाणी कमजोर हुए हैं। अब जिस पार्टी में अंदर ही एेसी सोच हो वह क्या तो विकल्प बनेगी और क्या संघर्ष में उतरेगी। दरअसल भाजपा अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व की कमी से अभी तक उबर नहीं पाई है।


आडवाणी को पार्टी ने प्रधानमंत्री पद का दावेदार भले ही घोषित कर दिया हो पर वे पार्टी के स्वाभाविक और निर्विवाद नेता नहीं बन पाए हैं। भाजपा में एक वर्ग ऐसा भी है जो मानता है कि आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने से फायदे की बजाय नुक्सान हुआ है। ऐसे लोगों का मानना है कि वाजपेयी के लौटने का भ्रम बनाए रखना फायदेमंद होता। इस बात को हाल में हुए कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में बड़ी शिद्दत से महसूस किया गया। पूरे प्रदेश से वाजपेयी के कार्यक्रम की मांग हो रही थी। पूरे विश्वास मत के दौरान भाजपा दरअसल कहीं भी कांग्रेस से लड़ती नजर नहीं आई तो इस वजह से कि अभी उसके अंदर ही संघर्ष चल रहा है।विश्वास मत के लिए चली राजनीति का सबसे ज्यादा फायदा मिला है बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती को।


राजनीतिक रूप से अछूत बनी मायावती और उनकी पार्टी न केवल राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आ गई बल्कि वे प्रधानमंत्री पद की दावेदार भी बन गईं। सत्रह सांसद लेकर सात दिन में उनका कद एक सौ तीस सांसदों की पार्टी के नेता आडवाणी से बड़ा नजर आने लगा। पिछले चार साल से जिस तीसरे मोर्चे की बात हो रही थी, वह आकार लेने लगा। मुलायम ¨सह यादव के इस मोर्चे में रहते वामदलों के बावजूद यह मोर्चा क्षेत्रीय ताकतों का मंच नजर आता था।


मायावती के आने से अचानक उसकी राष्ट्रीय छवि नजर आने लगी। इसलिए कि मुलायम सिंह यादव की बनिस्पत मायावती मोर्चे में शामिल सभी दलों के वोट बैंक में कुछ जोड़ने की हैसियत रखती हैं। इसलिए मायावती कांग्रेस के जनाधार के लिए खतरा हैं और भाजपा के नेतृत्व के लिए। प्रकाश करात को इन दोनों से लड़ना है। इसलिए वामदल मायावती के साथ हैं। यह सैद्धांतिक हठवादिता की राजनीति और व्यवहारिक राजनीति का गठजोड़ है।


प्रदीप सिंह