Sunday, June 29, 2008

हर माह हसरतों का लहू चूसता रहा...

चारो तरफ बिखरे पत्थरों और हरे पेड़-पौधों की आत्माएं, धराशाई ईमारतों और सपनों के मलबे, सरकारी बुल्डोजरों से ध्वस्त होते निर्माण और न्याय, डायनामाइट से उड़ाया जाता राज-धन और लोक-मन, और राजपथ पर आत्मसमर्पित लोकतंत्र और नैतिकता... यह लखनऊ है या कि बगदाद?चारो तरफ भूख और मरी के बीच गिद्ध-राजनीति का त्रासद शोर, हूटरों और सायरनों की फासीवादी हुआं-हुआं के बीच किसानों के आत्म-उत्सर्ग की सांय-सांय, महारानी को धूल से बचाने के लिए बार-बार धुलती सड़क के बीच प्यास के रेगिस्तान में घिसटती आम जिंदगी... यह उत्तर प्रदेश है या कि सोमालिया?

चारों तरफ सरकारी ढिंढोरचियों के कर्णभेदी प्रसारणों के बीच लोकतांत्रिक स्वर के उच्चारण पर मर्मभेदी उत्पीड़न, राज प्रायोजित मुजरों के लिए प्रेक्षागृह और जन आयोजन की पहल करने वालों को यातनागृह, खुद की प्रतिमा स्थापित करने के राजतंत्रीय आयोजनों की हद और लोकतंत्र का प्रतिमान स्थापित करने के लिए तमाम जद्दोजहद...! यह अपना प्रदेश है या कि म्यांमार या कि चीन?इन सवालों के साथ मायावती सरकार का एक साल आज पूरा हो गया। इस एक साल में जो हुआ उसका सच और उस सच पर चस्पा ये सवाल बाकी के चार साल की सिहरन देते हैं। आज किस्म-किस्म के राज-जश्न हो रहे हैं। राज-जश्न पर सवार यक्ष प्रश्न अब जवाब नहीं चाहते, निराकरण मांगते हैं।

राज-प्रचारित छदूम उपलब्धियों के बरक्स असलियत चीख-चीख कर इन सवालों का खोखला जवाब नहीं, ठोस हल मांगती है। हम साल भर की हकीकत का कुछ हिस्सा आपके समक्ष पेश करने का साहस कर रहे हैं, यह जानते-समझते हुए कि हमारे रास्ते में उगा दिए गए हैं कितने ढेर सारे बबूल के जंगल!मायावती के शासन का आज एक साल पूरा हो रहा है। इस एक साल में हुआ क्या?

इस एक साल में आम आदमी की उपलब्धियां क्या रहीं और सत्ताधारिणी की उपलब्धियां क्या रहीं? सरकारी भांड सरकार की उपलब्धियां गिनाएंगे, लेकिन जनता ने इस एक साल में क्या पाया उसकी हम जमीनी समीक्षा तो कर ही सकते हैं। यह हमारा लोकतांत्रिक कर्तव्य है। हम अधिकार की बात करने के फैशन से दूर के हैं।'डेली न्यूज़ ऐक्टिविस्ट’ ने साल भर में सामने आए वे सारे मसले उठाए हैं, जो आम आदमी से जुड़े हैं।

पत्थर की मूर्तियों से राजधानी को पाट देने का मसला हो या केंद्र की बिना सहमति लिए किसानों का 28 हजार 510 हेक्टेयर खेत पाट कर गंगा एक्सप्रेस वे बनाने का मसला। बुंदेलखंड की भुखमरी और किसानों की आत्महत्याओं का मसला हो या छात्रों पर पुलिस फायरिंग, छात्र संघ पर प्रतिबंध और व्यापारियों पर वैट का मसला। विकास प्राधिकरण और नगर निगम के नियम-कानून ध्वस्त कर देने का मसला हो या कानून व्यवस्था से लेकर राजधानी की आबोहवा तक के विध्वंस का मसला। सारे पहलुओं की हमने जमीनी समीक्षा का प्रयास किया है।

इन जरूरी मसलों में लोकतांत्रिक व्यवस्था के अलमबरदार का जन्मोत्सव, अथरेत्सव, उपहारोत्सव, नृत्योत्सव, दंडवतोत्सव और लोकतंत्र का विसर्जनोत्सव निश्चित रूप से शामिल है।दलित मसला भी अहम मसलों में से एक है। दलितों के हित के नारे लगा लगा कर मजबूत बनी बहुजन समाज पार्टी ने जिस तरह रंग बदल कर मनुवाद को अंगीकार किया उससे पार्टी के असली रंग का पता चला। यह साफ हो गया कि कौन से वर्ग का हित साधती है बसपा।

सत्ताधारिणी मायावती के अर्थ-सामर्थ्य का ग्राफ तथाकथित कुलीनवाद की परिधि फाड़ता हुआ ऊपर से ऊपर निकलता चला जा रहा है। 2007 के चुनाव नामांकन पत्र में की गई घोषणा और इस साल के इंकम टैक्स रिटर्न के आय-आकलन को ही सामने रखें तो मुख्यमंत्री मायावती की व्यक्तिगत आय 52 करोड़ से बढ़ कर 60 करोड़ रूपए हो गई है। यह आय मायावती को देश की शीर्ष कमाऊ हस्तियों में शुमार करती है। हम आय के अनधिकृत आंकड़े की कल्पना कर सकते हैं, जिक्र नहीं कर सकते। जन्मोत्सव से लेकर किस्म किस्म के उत्सवों में गिर पड़ने वाले उपहारों के आर्थिक आंकड़ीय आकलन से अधिक जरूरी वे सवाल हैं जो आलीशान उपहारों के कुलीन पैकेटों के नीचे दबे हुए झांकते हैं। जो उपहार देते हैं, वह कौन हैं?

उपहार के एवज में उन्हें क्या फायदे मिलते हैं? प्रदेश का दलित क्या इतना समृद्ध हो चुका है कि वह बेशकीमती उपहार दे सके? पार्टी में पद, प्रतिष्ठा, पैसा, टिकट किस वर्ग को मिल रहा है? सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार के आरोपों पर सफाई पेश करते हुए मुख्यमंत्री मायावती ने विधानसभा के हालिया सत्र में कहा कि उनकी सरकार का कोई भी अफसर, चाहे वह कैबिनेट सचिव हो, प्रमुख सचिव हो, मुख्य सचिव हो या कोई और, इन सबकी बड़ी साफ छवि है और ये अपनी ईमानदारी और प्रतिबद्धता के लिए मशहूर हैं। मायावती ने विधानसभा के भीतर हास्य में यह बात नहीं कही थी। लेकिन उनका यह गंभीर वक्तव्य समाज में कितना हास्य प्रदान करता है, यह उनके चाटुकार नौकरशाह उन्हें थोड़े ही बताएंगे।

प्रतिष्ठित टाइम पत्रिका ने इस पर कहा भी कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की छवि उनके सिपहसालारों और अफसरों के कारण नीचे गिर रही है।जिस प्रदेश की मुख्यमंत्री दलित हितवादी महिला हो, उस प्रदेश में दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं देश भर में सबसे ज्यादा हों, उस हितवाद और वैसी हितवादी कानून-व्यवस्था के बारे में क्या कहा जा सकता है।

मायावती ने 13 मई 2007 को उत्तर प्रदेश की सत्ता संभाली। उस तारीख से 31 मार्च 2008 के बीच दलित महिलाओं से बलात्कार की 271 घटनाएं घटीं। बलात्कार की ये वो घटनाएं हैं जो काफी जद्दोजहद के बाद पुलिस ने दर्ज कीं। इनमें उन घटनाओं को हमने शामिल नहीं किया, जिनकी सूचनाएं अखबार तक पहुंचती हैं पुलिस से दुत्कारे जाने के बाद। तब तक काफी देर हो चुकी होती है। हम उसे जन अदालत के समक्ष जनहित याचिका के बतौर पेश तो करते हैं, लेकिन वे मामले सरकारी दस्तावेजों में शुमार नहीं होते। हम ऐसे ही प्रदेश में रहते हैं, जहां दलित से बलात्कार में पुलिस भी लिप्त रहती है और थाने बूचड़खाने की तरह बलात्कारखाने में तब्दील हो चुके हैं।

अगर हम उन आंकड़ों और घटनाओं को भी सरकारी आंकड़ों में शामिल कर लें तो भयावह दृश्य दिखाई पड़ेगा। मायावती शासन के 10 महीने में 215 दलितों की हत्या हुई। यह चिंतनीय इसलिए भी है क्योंकि यह वो सरकार है जो दलितों के लिए आठ-आठ आंसू रोती है और दूसरा कोई रोता है तो उसे कोसती है... रूखसत हुआ जो साल तो महसूस यूं हुआहर माह हसरतों का लहू चूसता रहा


...प्रभात रंजन दीन

Friday, June 13, 2008

माया-मुलायम खिचड़ी न पकी, न पकेगी

यूपी में है दम। जुर्म यहां है कम। अमिताभ बच्चन का यह नारा चुनाव में खूब चला। पर अमिताभ का यह नारा जमीनी हकीकत से दूर था। सो मुलायम सिंह निपट गए। अपन असल बात कहें। तो मुलायम सिंह मंत्रियों-विधायकों की गुंडागर्दी से ही निपटे। पर मंत्रियों-विधायकों के मुंह में खून लग जाए। तो सपा क्या, बसपा क्या। सो अब मायावती भी उसी रोग की शिकार। पर माया-मुलायम में एक फर्क।

मुलायम अपनों के मददगार थे। भले ही वे जुर्म करके आ जाएं। पर मायावती इस मामले में मुलायम के उलट। क्रप्शन के लिए रोकती नहीं। जुर्म करने पर छोड़ती नहीं। मुलायम राज में बिगड़े मंत्री-विधायक अब मुश्किल में। मायावती अब तक तीन मंत्री निपटा चुकी।

एक भू-माफिया सांसद उमाकांत यादव भी निपटाया। याद न हो, तो याद करा दें। मायावती ने उमाकांत को अपने घर पर बुलाकर गिरफ्तार करवाया। मंत्रियों-विधायकों-सांसदों के लिए चेतावनी थी। पर जो ना समझे, वे अनाड़ी थे। सो अब तक एक सांसद-तीन मंत्री निपट चुके।

सबसे पहले अनंत सेन यादव निपटे। फिर डाक्टर संख्वार निपटे। अब यमुना निषाद। पर अपन ने बात शुरू की थी अमिताभ बच्चन से। जिनका अब यूपी से वैसा नाता नहीं। जैसा मुलायम राज में था।

मुलायम राज को याद करें। तो तिकड़ी का दबदबा खूब रहा। अमर-अमिताभ-सुब्रत की तिकड़ी ऐसी थी। जैसे अमर-अकबर-एंथनी की थी। जुर्म के मामले में तो अमिताभ की खूब लानत-मलानत हुई। अमर सिंह मुकदमों में फंस गए। रहे सुब्रत राय सहारा। 'मुलायम' राज गया। तो 'माया' की शक्ति शुरू हुई।

माया सरकार की रिजर्व बैंक को एक चिट्ठी गई। रिजर्व बैंक फौरन हरकत में आया। सहारा फाइनेंशियल कार्पोरेशन पर रोक लगा दी। इधर 'सहारा' कोर्ट में गया। रिजर्व बैंक के फैसले पर रोक की गुहार लगाई। उधर मुलायम पहुंचे मायावती के घर।

यों मायावती ने बुलाया था- मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष तय करने के लिए। कानून के मुताबिक कमेटी में सीएम और विपक्ष का नेता भी। मुलायम चाहते, तो न जाते। पर मायावती का फोन आया। तो जा पहुंचे। अब तेरह साल बाद माया-मुलायम आमने-सामने बैठे। तो कलमकारों ने हवाई उड़ानें शुरू कर दी। किसी को तेरह साल बाद बर्फ पिघलती दिखी। तो किसी को 'सहारा' की मदद का चक्कर दिखा। लगे राजनीति के हवाई किले बनाने।

अब हुआ भी यह। इधर माया-मुलायम मिले। उधर यूपी सरकार से रिजर्व बैंक को नई चिट्ठी चली गई। जिसमें पहली चिट्ठी वापस लेने की बात। अब सुप्रीम कोर्ट ने भी रिजर्व बैंक को दुबारा सुनवाई का हुकम दे दिया। अपन को अब रिजर्व बैंक का फैसला पलटने की उम्मीद ज्यादा। सिर्फ माया-मुलायम मुलाकात नहीं। सोनिया-मुलायम नजदीकी भी हो चुकी।

पर बात माया-मुलायम मुलाकात पर हुई हवाई उड़ानों की। यों राजनीति में जो कहा जाए। वह असल में हो भी, कोई जरूरी नहीं। पर अमर सिंह मंगलवार को खुलकर सामने आए। अखबारनवीसों की हवाई उड़ानों की धज्जियां उड़ाते बोले- 'मायावती के साथ कोई राजनीतिक समझौता नहीं हो सकता। उसका हाथ अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी, डीपी यादव जैसों के सिर पर। उसने दो बार बीजेपी से मिलकर सरकार बनाई। वह अब भी बाकी राज्यों में बीजेपी की मददगार। वह नरेंद्र मोदी के साथ मंच पर बैठी।' सोचो, कुछ पक रहा होता। तो अमर सिंह मशीन में भुन रहे पॉपकार्न की तरह न फड़फड़ाते।

अमर सिंह शहरी कल्चर के न होते। तो अपन भड़भूंजे की भट्टी का जिक्र करते। पर अमर सिंह कुछ भी कहें। मुलायम राज में जुर्म कम नहीं थे। अपने तीन मंत्रियों की बलि देकर मायावती ने बदमाशों में दहशत मचा दी। मंगलवार को मायावती विधायकों-सांसदों-मंत्रियों-पदाधिकारियों की मीटिंग में बोली- 'कानून अपने हाथ में लेने वाले संभल जाएं।' पर बात माया-मुलायम मुलाकात की। लोग कैसी भी हवाई उड़ानें भरें। अपन को ना तो बर्फ पिघलती नजर आई। न कोई नए राजनीतिक समीकरणों की उम्मीद।


इंडिया गेट न्यूज

Wednesday, June 11, 2008

सराहनीय मायावती उलाहनीय मीडिया

देर आयद दुरुस्त आयद उत्तर प्रदेश सरकार में ताकतवर मंत्री रहे जमुना प्रसाद निषाद की गिरफ्तारी ने सबकॊ चौंकाया अखबार वालॊं कॊ सरॊकार वालॊं कॊ और सरकार वालॊं कॊ भी। अखबार वाले तॊ जज बनकर जमुना प्रसाद निषाद कॊ क्लीन चीट दे चुके थे। सरॊकार वालॊं कॊ भरॊसा ही नहीं था कि एक दिन पहले तक निषाद कॊ बचाने वाली मायावती उनकी गिरफ्तारी का आदेश भी जारी कर सकती हैं। और सरकार वालॊं कॊ आखिरी समय तक गुमान नहीं था कि मुख्यमंत्री ऐसे फैसले करने वाली है।
पुलिस महानिदेशक ने कल शाम जिसे पाक साफ बताने की कॊशिश की थी उसकी गिरफ्तारी के आदेश से भौचक्के उन्हें ही प्रेस वालॊं कॊ निषाद की गिरफ्तारी की खबर देने की आज औपचारिकता निभानी पड़ी।


सॊमवार कॊ डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट में खबर भी प्रकाशित हुई जिसमें मायावती ने जमुना निषाद से त्यागपत्र तॊ ले लिया लेकिन महराजगंज कॊतवाली में हुई तॊड़फॊड़ और सिपाही कृष्णानंद राय की हत्या से निषाद कॊ बचाने के विरॊधाभासी दलीलॊं की हद तक जाकर तर्क दिए थे।


डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट ने कुछ लॊकतांत्रिक सवाल भी खड़े रखे कि क्या कॊई आम आदमी भी मंत्री की तरह महज त्यागपत्र देकर दंड संहिता और न्याय प्रक्रिया संहिता के दायरे से अलग हॊ सकता है
चश्मदीद गवाहॊं की मौजूदगी में हुई घटना से प्रथम द्रष्टया अपराध प्रमाणित हॊने के बावजूद बसपा विधायक कॊ गिरफ्तार नहीं करना क्या आम नागरिक और एक खास असामाजिक बीज तत्व के व्यक्ति के बीच सत्ताई भेदभाव की अलॊकतांत्रिक विभाजक रेखा नहीं खींचता।


एक दिन बाद ही इस सवाल का जवाब मिल गया। जमुना निषाद की गिरफ्तारी का पूरा स्रेय मुख्यमंत्री मायावती कॊ जाता है। ऊपर जॊ इतनी बातें लिखी गई उसका आशय यह कतई न लें कि डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट कॊई स्रेय लेना चाहता है।


अखबारॊं कॊ स्रेय लेने की मंशा भी नहीं रखनी चाहिए क्यॊंकि स्रेय अखबारॊं का प्रेय हॊ ही नहीं सकता। स्रेष्ठता स्थापित करने का प्रेय व्यक्तित्व का खॊखलापन ही हॊता है और कुछ नहीं।


अखबार का परम प्रिय लछ्य केवल एक उत्प्रेरक तत्व की कारगर भूमिका निभाने का है जॊ खुद पर कॊइ प्रभाव लाए बिना रसायनॊं का भूचाल ला देता है जिससे नायाब अविष्कार जन्म लेते हैं। बस अखबार की इतनी ही भूमिका है और हॊना चाहिए। जिन्हें यह बात उपदेश जैसी लगे उनके लिए पढ़ने समझने की यह सामग्री नहीं है।


यह बात उन लॊगॊं के लिए उन अखबारॊं के लिए और उन पत्रकारॊं के लिए है जॊ न खुद मुख्तार है और न स्टेनॊग्राफर कि अपराधी कॊ एकतरफा साधु करार दे दिया या कि जैसे नेता नौकरशाह ने बताया उसका डिक्टेशान ने लिया और छाप दिया।


फिर कैसे बचेगा लॊकतंत्र।


अगर हम एक सांकेतिक प्रतिरॊध भी नहीं खड़ा कर पाए तॊ। मीडिया का परम उद्देश्य तॊ है या कि सत्ता के आगे अत्मसमर्पण का प्रॊफेशनलिज्म परम लछ्य है।


फिर भांडॊं के चाटुगायन और मुनादी के धारदार स्वर में फर्क कैसे रह पाएगा। अखबार की नीति के नाम पर पत्रकारिता कॊ रेड लाइट एरिया बना देने की हरकत कब तक चलती रहेगी। आज पत्रकारॊं की साख पुलिस के सिपाही से भी खराब हॊकर रह गई है। उसकी वजह अखबार की नीति के नाम पर नैतिकता कॊ गिरवी रख देने की कुछ पत्रकारॊं संपादकॊं की स्खलित हरकतें हैं।


और भुगतना आम पत्रकार समुदाय है जॊ सड़क पर आम आदमी से सरॊकार रखता है। कॊई भी अखबार में चरण गाथा लिखते और छापते है वे रंगमंच के पर्दे ही हिलाते रह जाते हैं हम बुनियाद हिलाने की बात करते हैं।


आज के इस फैसले के लिए मायावती कॊ धन्यवाद तॊ दिया ही जाना चाहिए। यह वाक्य मुख्यमंत्री की चाटुकारिता के लिए नहीं लिखे जा रहे। यह वाक्य संतॊष की अभिव्यक्ति के वाक्य हैं। हत्यारॊपी निषाद की गिरफ्तारी के मुखयमंत्री के फैसले से आज यह लग रहा है कि यदि विधायिका अपना कार्य लोकतांत्रिक मर्यादा और नैतिकता के सहारे करे तो समाज में कितना सार्थक संवाद आकाशवाणी की तरह बरसता है।

मायावती के इस फैसले ने लोकतंत्र की छत थामे रहने का दंभ भरने वाले मीडिया को आत्मविश्लेषण का मौका दिया है, कि इस प्रकरण में मायावती ने क्या किया और मीडिया ने क्या किया..?लेकिन आत्ममंथन के लिए आत्मा का होना तो जरूरी है ना!

प्रभात रंजन दीन

Tuesday, June 10, 2008

खैरात या हिस्सेदारी, क्या देंगी बहनजी?

कहा जा रहा है कि मायावती ने उत्तर प्रदेश में दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम मतदाता को एक साथ लाकर कांग्रेस जैसा आधार हासिल कर लिया है। लेकिन दोनों में बुनियादी अंतर ये है कि कांग्रेस से लोग रहमोकरम की उम्मीद रखते थे, जबकि मायावती के साथ वो सत्ता में हिस्सेदारी की हसरत से आए हैं। ये उत्तर प्रदेश की राजनीति में पिछले दो दशकों में आया बहुत बड़ा परिवर्तन है।

अब बहन मायावती के सामने सबसे बड़ी चुनौती ये है कि वे दबे-कुचले, असुरक्षित और परेशान लोगों की सत्ता में हिस्सेदारी की हसरत को आगे बढ़ाती हैं या उनके साथ रहमोकरम की राजनीति करती है। सत्ता में हिस्सेदारी का कोई मॉडल अभी तक अपने देश में है नहीं। हां, रहमोकरम की राजनीति में तमिलनाडु के एम करुणानिधि ने एक शानदार मॉडल पेश कर रखा है।

डीएमके सरकार के एक साल पूरा करने पर करुणानिधि ने इस रहमोकरम का पूरा ब्यौरा अखबारों में छपवाया है। उनके कुछ रहमों पर गौर कीजिए : दो रुपये किलो के भाव चावल, हफ्ते में बच्चों को तीन अंडे, सभी जरूरतमंद परिवारों को मुफ्त कलर टीवी, गरीब लड़कियों को शादी के लिए 15,000 रुपए का अनुदान, गैस कनेक्शन के साथ गैस स्टोव मुफ्त...आदि-इत्यादि।

अवाम को खैरात बांटने की करुणानिधीय राजनीति का ही विस्तार है कि हुजूर की नाराजगी के चलते मंत्री पद से हाथ धोनेवाले दयानिधि मारन ने 3 जून को उनके जन्मदिन के मौके पर सभी मोबाइलधारकों को रोमिंग चार्जेज खत्म करने की खैरात देने का इरादा बना रखा था।

मायावती चाहें तो करुणानिधि की दिखाई इस राह पर चलकर गरीबों को खुश कर सकती हैं। वो चाहें तो उत्तर प्रदेश के औद्योगिक विकास के नाम पर अपनी सरकार को मुलायम-अमर सिंह की तर्ज पर अनिल अंबानी और सुब्रतो रॉय जैसी बिजनेस हस्तियों का एजेंट बना सकती हैं। या, बुद्धदेव भट्टाचार्य की तरह राज्य में टाटा या सलीम ग्रुप के स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन खुलवा सकती हैं।

ये अलग बात है कि इस तरह के विकास के नाम पर किसानों से उनकी आजीविका के इकलौते साधन, जमीन को छीन लिया जाएगा और कॉरपोरेट घरानों को हजारों करोड़ की सब्सिडी दी जाएगी।

विकास का एक और तरीका मायावती चाहें तो अपना सकती हैं और वो है अधिक से अधिक लोगों को रोजगार देनेवाला, जन-भागीदारी वाला औद्योगिक विकास। इसके लिए गांव पंचायतों को सक्रिय करना पड़ेगा। सरकारी पैसे की राजनीतिक लूट को रोकना होगा।

प्रदेश की विशेषता के आधार पर रोजगार-प्रधान उद्योगों को चुनना होगा। गांधीजी की तर्ज पर लघु और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना होगा। लेकिन ये तरीका बहनजी के लिए काफी मुश्किल होगा।

बाबासाहब अंबेडकर तक गांधी की इस आर्थिक सोच के खिलाफ रहे हैं। वैसे भी, ग्लोबीकरण के समर्थक बहनजी से पक्की उम्मीद पाले बैठे हैं कि वो विदेशी पूंजी और कॉरपोरेट घरानों का जमकर स्वागत करेंगी, क्योंकि दलितों को आगे बढ़ने के हर उपलब्ध साधन को अपनाना है।

दलितों के लिए हिंदी प्रेम या स्वदेशी का कोई मतलब नहीं होता। उन्हें अगर अंग्रेजी आगे बढ़ाएगी तो वे अंग्रेजी ही अपनाएंगे और मल्टी नेशनल कंपनियां इज्जत के साथ अच्छा पैसा देंगी तो देशी कंपनियों के घुटन भरे माहौल में वो क्यों जाएंगे!

Saturday, June 7, 2008

मायावती पर 'बहनजी द ग्रेट सिस्टर'

उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बनने वाली मायावती के संघर्ष की कहानी अब बड़े पर्दे पर दिखाई देगी.फ़िल्म का नाम है--'बहनजी- द ग्रेट सिस्टर'. इस फ़िल्म की मुख्य भूमिका में अभिनेत्री प्रतिमा कन्नन नज़र आएँगी जो मायावती के किरदार को पर्दे पर अच्छी तरह जीने की तैयारी में जुट गई हैं. प्रतिमा कन्नन टेलीविज़न और फ़िल्मों की जानीमानी अभिनेत्री हैं जिन्हें कुछ दर्शक प्रतिमा काज़मी के नाम से भी जानते हैं.


इस फ़िल्म का मुहूर्त 15 जनवरी 2007 को ही हो गया है लेकिन 'बहनजी' का आदेश न मिलने की वजह से फ़िल्म अब तक शुरू नहीं हो पाई है. लेकिन फ़िल्म की शूटिंग शुरू करने के लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश चुनाव तक रुकने के लिए कहा था


निर्देशक कैलाश मासूम कहते हैं, "15 जनवरी को मायावतीजी का जन्मदिन आता है इसलिए मेरी इस फ़िल्म के मुहूर्त के लिए इससे अच्छा दिन क्या हो सकता था. लेकिन फ़िल्म की शूटिंग शुरू करने के लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश चुनाव तक रुकने के लिए कहा था. मेरी इस फ़िल्म के लिए उन्होंने अपना आशीर्वाद देने के साथ पूरा सहयोग करने का वादा किया है."


दो से ढाई करोड़ रुपए की लागत से बनने वाली इस फ़िल्म की शूटिंग गाज़ियाबाद के बादलपुर गाँव, लखनऊ, आगरा, दिल्ली और मुंबई में होगी.
इस फ़िल्म के निर्देशक कैलाश मासूम ख़ुद भी दलित हैं लेकिन वे कहते हैं कि उनका बहुजन समाज पार्टी से कोई ताल्लुक़ नहीं है, वे बचपन से ही मायावती से प्रभावित रहे हैं.


वे कहते हैं, "मैं बहनजी के गाँव (बादलपुर) के पास दयानतपुर का ही रहने वाला हूँ और मैंने उनकी कठिनाइयों को नज़दीक से देखा है. यह फ़िल्म मायावतीजी की दास्तान है. मैंने पूरी तरह से सच्चाई दिखाने की कोशिश की है. दलितों को बहनजी ने जिस तरह से ऊपर पहुँचाया है वह लोगों तक पहुँचनी चाहिए और इसके लिए उनके संघर्षपूर्ण जीवन को भी जानना ज़रूरी है".
मासूम के अनुसार, जिस तरह से मायावतीजी ने अंबेडकर के सपने को साकार किया और दलितों को प्रताड़ना से मुक्त कराया है उससे सारी दुनिया उनसे प्रभावित हुई है.


क्या इस फ़िल्म में मायावती के ऊपर लगे आरोपों और विवादों को भी दिखाया जाएगा, यह पूछे जाने पर कैलाश मासूम कहते हैं, "इस फ़िल्म का उद्देश्य मायावतीजी के संघर्ष की कहानी को जनता तक पहुँचाना है."
जब मायावती पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थी तभी से मासूम ने उनके ऊपर फ़िल्म बनाने का मन बना लिया था.
फ़िल्म के अन्य किरदारों के लिए कई नाम चर्चा में हैं. जिनमें राजा भइया के किरदार के लिए जैकी श्रॉफ और कांशीराम के किरदार के लिए आलोकनाथ को लेने की बात चल रही है.

प्रतिमा कन्नन को मुख्य किरदार में लेने को लेकर वे कहते हैं, "मुझे उनके अंदर बहनजी की झलक दिखाई दी और जब मैंने उनसे पहली बार बात की तो उनकी आवाज़ सुनकर मैं पूरी तरह से संतुष्ट हो गया कि बहनजी के किरदार के लिए प्रतिमा से अच्छा और कोई नहीं हो सकता है".
मैं उनसे (मायावती से) मिलने का इंतज़ार कर रही हूँ ताकि मैं अपने होमवर्क में उनकी कुछ ख़ास चीजों का भी समावेश कर सकूँ


कई विज्ञापन फ़िल्में बना चुके मासूम की यह पहली फ़िल्म है जिसे लेकर वे काफ़ी उत्साहित हैं और अपने आप को भाग्यशाली मानते हैं कि मायावती ने उन्हें फ़िल्म बनाने की अनुमति दे दी है.
इस फ़िल्म की मुख्य किरदार प्रतिमा कन्नन के अनुसार, वे बहनजी के किरदार को परदे पर जीने के लिए लेकर बेहद उत्साहित हैं. उनके हाव-भाव, उनके बोलने का अंदाज़ और उनके तरीके को टेलीविज़न पर पूरे ग़ौर से देख रही हैं.

बीबीसी हिंदी से सभार

Wednesday, June 4, 2008

कहां है दलितों की सरकार...

दलित...यह एक ऐसा शब्द है, जो सदियों से नफरत और हिकारत का पर्याय रहा है. हजारों सालों से वह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से शोषित होता आ रहा है. वह अपने वोट की ताकत से लोगों को सत्ता में पहुंचाता रहा, लेकिन खुद सत्ता से बहुत दूर, सामाज के अंतिम पायदान पर खड़ा रहा. भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार दलितों के राजनीतिक दल बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत हासिल हुआ है. यहां अब दलितों की सरकार है.

बसपा सरकार के शासन में दलित खुद को कितना सुरक्षित महसूस करते हैं, क्या उनके जीवन में कोई बदलाव आ रहा है...इसी का जायजा लेने के लिए मैं एक सप्ताह तक पूर्वी उत्तर प्रदेश के दौरे पर था. जो देखा वह आप के सामने हैं.... मैले-कुचैले कपड़ों में लिपटी उस पच्चीस साल की दलित विधवा सुनीता की सूरत बार-बार आखों के सामने आ जाती..वह दो बच्चों की मां थी. ऐसे बच्चे, जिनके सिर से बाप का साया उठ चुका है.

दिसंबर की गुलाबी ठंड में बिना गर्म कपड़ों के वे बच्चे... "जब बाप ना बाय, तो गरम कपड़ा के दिआई???" एक मां की दुख भरी आवाज बार बार कानों में कचोट रही थी. वोट किसे देते हो? "हाथी पे..." क्यों देते हो? "इ हमार पार्टी है." मायावती को जानते हो...? "हां, स्कूल में मास्टरनी हैं.. " कांशीराम को जानते हो? "इ के है?... रहुला के चाचा हैं." सरकार से क्या चाहते हो?.. "अंतोदय कार्ड.."सुनीता दो बार से बसपा को वोट दे रही है, अब उसकी सरकार है. क्या उसकी एक छोटी-सी ख्वाहिश भी पूरी नहीं हो सकती?

उसके सपने केवल अंत्योदय कार्ड तक सिमट के रह जाते हैं. सुनीता कहती हैं, "बीडीओ साहब से कह कर हमारा कार्ड बनवा दीजिए. कम से कम दो जून की रोटी तो मिल जाएगी. नहीं तो मर जाएंगे." पति के इलाज के लिए सुनीता ने खेत गिरवी रख दिया था. फिलहाल, वह दूसरे के खेतों से बथुआ लाकर बच्चों का पेट पाल रही है.

मेरे जेहन में बार-बार यह सवाल घूम रहा था. सुनीता बथुआ का साग खिला कर कब तक अपने बच्चों को जिंदा रख पाएगी? क्या बसपा सरकार में उसके हालात बदलेंगे? यह सोच ही रहा था कि ड्राइवर की तेज आवाज से मेरा ध्यान भंग होता है. "साहब, अंबेडकर गांव का बोर्ड लगा है, गाड़ी मोड़ दूं?" मेरे सामने राज्य की राजधानी लखनऊ से महज 30 किलोमीटर दूर शिवपुरी गांव की सुनीता की बातें फ्लैशबैक की तरह घूम रही थी.

हम अंबेडकर बस्ती की तरफ मुड़ जाते हैं. मैं मायावती सरकार के छह महीने बीतने के बाद लोकतंत्र के उस उत्सव की खुशी की तपिश महसूस करने निकला था जिसे दलितों ने अपने वोट से साकार किया था. पहली बार पूर्ण बहुमत से उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार बनी है. दलितों की सरकार... समाज के हाशिए पर खड़े सबसे गरीब आदमी की सरकार... जिसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी उसकी सरकार बनेगी. लेकिन इस यात्रा से महसूस हुआ बसपा सरकार बनने से दलित खुश तो हैं लेकिन फिलहाल उनके जीवन में बहुत कुछ बदला नहीं है. न ही उन्हें कोई उम्मीद है कि उनके जीवन में कोई बदलाव होगा.

सुनीता जैसे लाखों लोग एक अदद बीपीएल और अंत्योदय कार्ड के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिस पर उनका हक है. लेकिन गरीबों का हक मार कर गांव के दबंग लोगों ने बीपीएल और अंतोदय कार्ड बनवा लिया है. इस कार्ड के जरिए गरीब दलितों को हर महीने बहुत ही सस्ते में 35 किलो राशन मिल जाता है. टेढ़े-मेढ़े रास्ते से होते हुए हम अंबेडकर नगर के सीमई कारीरात गांव की अंबेडकर बस्ती में पहुंचते हैं. बस्ती तक पक्की सड़क है. अंबेडकर नगर संसदीय क्षेत्र से मायावती चुनाव लड़ती है. मायावती के राज्यसभा में जाने बाद फिलहाल इस संसदीय सीट पर सपा का कब्जा है, लेकिन इलाके के पांचों विधायक बसपा के हैं.

सीमई कारीरात की दलित बस्ती की सूरत बिलकुल अलग है. यहां समृद्धि दिखाई देती है. बस्ती के ज्यादातर मकान पक्के हैं. लड़के और लड़कियां कालेज में पढ़ते हैं. कई लोग सरकारी नौकरी में हैं. जब इस बस्ती की तरफ देखता हूं तो दूर क्षितिज में फिर से सुनीता का असहाय चेहरा दिखाई देने लगता है...सीमई कारीरात की दलित बस्ती में पहली बार पिछले साल मई में 'डीजे' आया था... अंबेडकर की आदमकद मूर्ति के सामने उस दिन रात भर नाच गाना हुआ... पूड़ी और खीर बांटी गई... युवाओं के साथ-साथ बुजर्गों ने भी ठुमके लगाए.

यह कोई शादी का अवसर नहीं था. यह सदियों से सताए गए दलितों के सत्ता प्राप्ति का उत्सव था. प्रजा से राजा बनने की खुशी का अवसर था. पूरी बस्ती में वह खुशी आज भी दिखाई देती है. गांव के नौजवान अनिल गर्व से कहते हैं, "गांव के सवर्णों की अब पहले जैसी हिम्मत नहीं रही. कालेज में अभी हाल में झगड़ा हुआ तो हमने सवर्ण लड़कों को खूब पीटा और सीना चौड़ा करके घर आए. वे हमारा कुछ बिगाड़ नहीं पाए." बगल में खड़े रिटायर शिक्षक और बस्ती के युवाओं को वैचारिक खुराक देने वाले बुधिराम कहते हैं, "बसपा की सरकार नहीं होती तो वे हमें दबा लेते. मायावती के मुख्यमंत्री बनने से अब हम सिर उंचा करके चल सकते हैं."

सीमई कारीरात वही ऐतिहासिक गांव है जहां एक पल्ले वाले दरवाजे लगाए जाते हैं. लेकिन दलितों ने विद्रोह किया और यहां ब्राह्मणों के इस फऱमान की परवाह किए बिना कि "इससे शिव भगवान नाराज हो जाएंगे" अपने घरों में दो पल्ले वाले दरवाजे लगा रहे हैं. बसपा सरकार बनने के बाद यह सिलसिला और बढ़ गया है. सीमई कारीरात के लोग खुश हैं. उन्हें लगता है कि बसपा शासन में य़ुवाओं को रोजगार मिलेगा और उन्हें सम्मान. लेकिन मुझे पूर्वी उत्तर प्रदेश की अपनी एक सप्ताह की यात्रा के दौरान सीमई कारीरात जैसी दूसरी दलित बस्ती नहीं मिली. लेकिन हां, हर दलित बस्ती में सुनीता जैसी महिलाओं से जरूर रूबरू होना पड़ता था.

पूर्वी उत्तर प्रदेश में बिजली की जबरदस्त किल्लत है. अंधेरे को चीरते हुए हम शशि के घर पहुंचते हैं. घर के बाहर पुलिस का पहरा है. फैजाबाद के मिल्कीपुर में मोमबत्ती की रोशनी में हमारी मुलाकात शशि के पिता योगेंद्र कुमार से होती है. मोमबत्ती की लौ की तरह ही योगेंद्र की आंखे भी हिलती रहती हैं... कभी वे अंधेरे को देखते हैं तो कभी रोशनी को... लंबी चुप्पी के बाद वह अपनी बेटी शशि की हत्या का आरोप बसपा के पूर्व मंत्री आनन्द सेन यादव पर लगाते हैं.

योगेंद्र बामसेफ के पुराने कार्यकर्ता हैं और कांशीराम के सपने को साकार करने और बसपा की सरकार बनवाने के लिए उन्होंने अपना बहुत कुछ स्वाहा किया है. वह कहते हैं, "बसपा के शासन में मेरी बेटी के हत्यारे खूलेआम घूम रहे हैं. जो मंत्री और विधायक मेरे घर पर आ कर कभी डेरा डाले रहते थे, वे अब मुझसे मुंह चुराने लगे है. जिस बसपा के लिए मैने कभी घर परिवार की चिंता नहीं, उसके शासन में मैं असहाय और लाचार महसूस कर रहा हूं.

बात सुनने की बात तो दूर मायावती ने तो मुझसे मिलने से ही इनकार कर दिया." योगेंद्र कोई अकेले दलित नहीं हैं, जिन्होंने बसपा के लिए दिन-रात एक कर दिया और जब सरकार की मदद की जरूरत पड़ी तो उन्हें उपेक्षा ही मिली. दलितों का उत्पीड़न जारी है. तब भी पुलिस दबंगों का साथ देती थी और आज भी... बसपा शासन में भी दलित अपनी सामाजिक सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं. लखनऊ के महिपत मऊं गांव के दलितों के घर में स्थानीय दंबग मुसलमानों ने घुस कर जम कर उत्पाद मचाया, महिलाओं और लड़िकयों से बलात्कार की कोशिश की.

पीड़ित चंद्रिका प्रसाद कहते हैं, "अपराधियों पर पुलिस इसलिए कोई कार्रवाई नहीं कर रही है, क्योंकि एक बसपा विधायक का उन्हें संरक्षण प्राप्त है." संकट की इस घड़ी में बसपा नेताओं ने भी इनसे किनारा कर लिया है... अपने भी पराए हो गए..प्रतापगढ़ जिले के पट्टी तहसील के भदेवरा गांव के दलित युवक चक्रसेन की गांव के दबंग ब्राह्मणों ने इसलिए हत्या कर दी थी कि उसका बीटेक में दाखिला हो गया था. चक्रसेन के परिवार के लोग स्थानीय बसपा विधायक पर अपराधियों को संरक्षण देने का आरोप लगाते हैं.

जब चुनाव का बिगुल बजा तो भदेवरा के दलितों ने हर बार की तरह इस बार भी खुल कर बसपा का साथ दिया. जब मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो उनके भी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उन्हें लगा कि अब पंडित जी और बाबू साहब लोग उन्हें तंग नहीं करेगे. लेकिन कुछ दिन बाद ही उनका सपना काफूर हो गया. चक्रसेन के दादा शिव मूरत सहित बस्ती के लोग एक स्वर में कहते हैं, "यह दिन देखने के लिए थोड़ी हमने बसपा को वोट दिया था. अब हम लोग बसपा को वोट नहीं देंगे."चक्रसेन का घर गांव के आखिरी छोर पर था.

वैसे दलित बस्ती गांव के आखिरी छोर पर ही होती है. सवर्णों के घरों से काफी दूर... जब मैं चक्रसेन के घर पहुंचता हूं तो एक आदमी हमसे पूछताछ करने लगता है. पता चला वह हेड कांस्टेबल बुधराम सरोज हैं. चक्रसेन का परिवार पुलिस के सुरक्षा घेरे में है. मैं जब अपनी नोट बुक में पुलिसवालों का नाम नोट कर रहा था तो बुधराम धीरे से कहते हैं, "मेरे नाम के आगे एससी लिख लीजिए." पांच पुलिस वाले घर की रखवाली कर रहे हैं, एक कमरे के उस घर की, जिसमें कुछ है ही नहीं... बुधराम सरोज चक्रसेन के बूढ़े-लाचार दादा शिवमूरत की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, "इनकी बहुत ही बुरी स्थिति है. घर में खाने तक को अनाज नहीं है." चक्रसेन के परिवार की सुरक्षा में लगे पांच पुलिसवालों में से तीन सवर्ण हैं, दो पंडित जी और एक ठाकुर साहब. जिस मड़ई में भैंस बांधी जाती थी, उसी में पांचो पुलिसवाले रह रहे हैं.

खाना वे दलित बस्ती में ही एक साथ बनाते और खाते हैं. सवर्ण पुलिसवालों को एक गरीब दलित की सुरक्षा में लगना अखर रहा है. उनके चेहरे से यह साफ झलक रहा था... बुधराम सरोज कहते हैं, "अपने अब तक के कैरियर मैं मैने शिवमूरत जैसे गरीब आदमी को कभी पुलिस सुरक्षा मिलते नहीं देखा." शिवमूरत खुद मानते हैं, "अगर बसपा की सरकार न होती तो उन्हें पुलिस सुरक्षा नहीं मिलती." लेकिन वे आगे कहते हैं, "हमें पुलिस वालों की नहीं, न्याय की जरूरत है." बस्ती के लोग कभी जिन पुलिसवालों को देख कर छुप जाते थे, चक्रसेन के परिवार की सुरक्षा में उनकी तैनाती को वे एक अजूबा ही मानते हैं.

आसपास के इलाके में इसकी चर्चा भी है.रायबरेली कभी इंदिरा गांधी और अब सोनिया गांधी की वजह से जाना जाता है. घूमते-घूमते हम यहां के छतईंयां गांव की दलित बस्ती में पहुंचते हैं. अस्सी साल की अनपढ़ बुजर्ग महिला बिठाना इंदिरा गांधी के मुकाबले किसी को नेता नहीं मानती. सोनिया गांधी को वोट देने वाली बिटाना मायावती को चिल्ला चिल्ला कर खरी-खोटी सुनाती हैं और हवा में यह सवाल उछाल देती हैं, "मायावती अपना पेट भरेंगी कि हमारा?" शिवकुमार कहते हैं, "मेरे घर में पांच वोट हैं. वैसे तो हम सोनिया गांधी को चाहते हैं, लेकिन हर बार कम से कम दो वोट बसपा को जरूर देते हैं." ऐसा ही कुछ रवैया लखनऊ के शिवपुर गांव के दलितों का है. वे मुलायम के प्रशंसक हैं, लेकिन वोट बसपा को देते हैं. बाबूलाल पासी कहते हैं, "मुलायम सिंह की सरकार अच्छा काम करती है लेकिन वोट मैं बसपा को ही देता हूं." यहां आकर बसपा की सफलता का राज समझ में आया.

कांशीराम ने दलित और बसपा को एक दूसरे का पर्याय बना दिया है. यही वजह है कि दलित अब अपने को बसपा से अलग नहीं कर पाता. राम नरायण कहते हैं, "वह अगर किसी दूसरी पार्टी को वोट दे भी दें, तो लोग यकीन नहीं करते. उन्हें बसपा का ही माना जाता है."यह लखनऊ जिले के निगोहा गांव की अंबेडकर बस्ती है. हाल ही में इसे अंबेडकर बस्ती का दर्जा मिला है. मायावती सरकार का विकास कार्य यहां दिखाई देता है.

132 दलितों को घर बनाने के लिए पैसा मिल गया है. लेकिन भूमिहीन दलितों को पट्टा देने के लिए जमीन ही नहीं है. मायावती के सोशल इंजीनियरिंग की कामयाबी यहां दिखाई देती है. मैं दलित पंच गंगा सहाय के साथ गांव के प्रधान से मिलने जाता हूं. उनके घर के सोफे पर हम तीनों साथ बैठ कर बाते करते हैं और चाय पीते हैं. इस बारे में पूछने पर बसपा समर्थक गांव के प्रधान सुरेंद्र कुमार दीक्षित कहते हैं, "अब हम दलितों से बराबरी का व्यवहार करते हैं. मैं सर्दियों में अक्सर दलित बस्ती में जाकर वहां लोगों के साथ जमीन पर बैठ कर अलाव तापता हूं." उत्तर प्रदेश में कहीं-कहीं यह बदलाव दिखता, लेकिन बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर.

अगर बसपा यह बदलाव लाने में कामयाब हो जाती है तो दलितों को वह सम्मान मिल जाएगा, जिसके लिए वे सदियों से संघर्ष करते आ रहे हैं. लेकिन आम दलित के लिए तो अभी यह सपने जैसा ही है.. हकीकत से बहुत दूर.. प्रतापगढ़ के गोपालपुर गांव के शिवबरन सरोज कहते हैं, "सवर्ण कभी नहीं चाहेंगे की हम उनकी बराबरी करें."


अनिल पांडेय, प्रमुख संवाददाता, द संडे इंडियन

माया मेहरबान..तो गरीबों के नसीब में भी मकान

शहरी गरीबों पर मेहरबान माया सरकार ने हर साल एक लाख मकान बनाने का फैसला किया है।
कांशीराम शहरी समग्र विकास योजना के तहत बनाए जाने वाले यह मकान प्रदेश के सभी 71 जिलों में बनाए जाएंगे। छोटी आबादी वाले जिलों में इसी साल एक हजार और बड़े जिलों में 1500 मकान बनाने का लक्ष्य रखा गया है।

इस योजना के तहत बनने वाले मकानों की निगरानी का जिम्मा जिलाधिकारियों को सौंपा गया है। मुख्यमंत्री मायावती ने इसकी घोषणा करते हुए कहा कि सरकार द्वारा शहरी गरीबों को दो कमरे के पक्के मकान, बिजली ,शौचालय , पेयजल व सड़क की सुविधाओं सहित उपलब्ध कराए जांएगे। उपरोक्त मकानों की कीमत शहरी गरीबों की जेब को ध्यान में निर्धारित की जाएगी। गौरतलब है कि अपने जन्मदिन के अवसर पर इसी साल जनवरी में मायावती ने कांशीराम शहरी समग्र योजना के तहत आवास विकास परिषद के बनाए 15 मकानों की चाभी गरीब परिवारों को सौंप इस परियोजना की शुरुआत कर दी थी।

इन मकानों की लागत 1.5 लाख रुपए रखी गयी थी। उम्मीद की जा रही है कि अब सरकार द्वारा बनाए जा रहे मकान भी शहरी गरीबों को 2 लाख से कम कीमत में ही दिये जाएंगे। मायावती के अनुसार 5 साल में इस योजना के तहत बनने वाले 5 लाख मकानों में निराश्रित विधवा,विकलांगों और गरीबी की रेखा से नीचे जी रहें परिवारों को आवंटन में प्राथमिकता दी जाएगी। मायावती सरकार ने गेस्ट हाउस कांड के बाद पहली बार 3 जून को सत्ता संभालने की 13 वीं वर्षगांठ पर यह घोषणा की। साथ ही मुख्यमंत्री ने जेलों में अरसे से बंद विकलांगों,बूढ़ों और महिलाओं को सरकार की ओर से, मुफ्त कानूनी सहायता देने का भी ऐलान किया है।

शहरी गरीबों के लिए कम कीमत के हर साल बनेंगे एक लाख मकानये मकान प्रदेश के सभी 71 जिलों में बनाए जाएंगे

बिजली, शौचालय, पेयजल सुविधा और होंगे दो कमरें मकानों की कीमत 2 लाख रुपये से कम होगी

विधवाओं,विकलांगों और गरीबी रेखा से नीचे वालों को आवंटन में प्राथमिकता

Tuesday, June 3, 2008

कांशीराम की जासूसी करती थीं मायावती

कांशीराम अपनी बैठक में किसी के साथ बातें कर रहे होते थे तो मायावती हर पांच मिनट बाद किसी न किसी बहाने से वहां आती रहती थीं।


ये 1977 के सर्दियों की एक रात थी। घर में सभी सोने की तैयारी कर रहे थे और 21 साल की यह शिक्षिका जिसने एलएलबी प्रथम वर्ष के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया थाए अपनी किताबों में डूबी सिविल सेवा की तैयारी में तल्लीन थी। तभी अचानक किसी ने दरवाजा खटखटाया।

ये थोड़ा अजीब बात थी क्योंकि इतनी रात गए किसी दोस्त या रिश्तेदार के आने की कोई संभावना नहीं थी। जब मायावती ने दरवाजा खोला तो वो ये देखकर हैरान हो गईं कि वहां बामसेफ नेता कांशीराम खड़े थे। कांशीराम को वह दलित बैठकों में कई बार देख चुकी थीं मगर सलवटदार कपड़ों और गले में मफलर लपेटे इस दलित नेता के साथ ये उनकी पहली मुलाकात थी।

मायावती और उनका परिवार कांशीराम के अप्रत्याशित आगमन से रोमांचित हो गया। देश के शहरी दलित समुदाय में कांशीराम तब तक एक जाना-माना नाम बन चुके थे। कांशीराम सीधे मायावती से मुखातिब हुए। उनकी मेज पर बिखरी किताबों के ढेर को देखकर उन्होंने पूछाए इतनी सारी किताबें पढ़ रही हो! इतना पढ़कर क्या बनना चाहती हो? मायावती ने कहा सिविल सेवा पास कर कलेक्टर बनना चाहती हूं ताकि ढंग से अपने समुदाय की सेवा कर सकूं।

उनके पिता ने भी डीगें हांकनी शुरू की कि किस तरह वो अपनी बेटी पर ध्यान दे रहे हैं ताकि वो बड़ी अफसर बनकर दलित समुदाय का गर्व बन सके। मगर कांशीराम ने प्रभुदास की बात पर ध्यान नहीं दिया। फिर से मायावती से मुखातिब होते हुए वह बोले "मुझे लगता है कि तुम बहुत बड़ी गलती कर रही हो।" और फिर कांशीराम ने एक ऐसी बात कही जिसे सुनकर मायावती की रग-रग में बिजली दौड़ गई और प्रभुदास को तो जैसे अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ।

'तुम्हारा साहस, दलित हितों के लिए समर्पण और दूसरी कई खूबियां मेरी नजर में आई हैं। मैं तुम्हें एक दिन इतना बड़ा नेता बना सकता हूं कि एक नहीं बल्कि कई कलेक्टर तुम्हारे सामने लाइन लगाकर हाथों में फाइलें लिए तुम्हारे हुक्म का इंतजार कर रहे होंगे। तब तुम सही मायनों में अपने समुदाय की सेवा कर कर पाओगी." कांशीराम ने भविष्यवाणी की। उस रात कांशीराम ने मायावती के साथ एक घंटे तक कई सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा की। उस एक घंटे ने मायावती की दुनिया बदलकर रख दी। अचानक ही उनके जीवन का उद्देश्य बदल गया।

कांशीराम तो इसके बाद चले गए मगर उनके शब्द मायावती के मन में देर तक गूंजते रहे। उन्हें इस तर्क में दम नजर आया कि राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के राज में एक सरकारी अफसर एक सीमा तक ही कुछ कर सकता है। मगर सवाल ये था कि क्या वो वाकई में इन उम्मीदों पर खरी उतर सकती हैं।


ये निस्संदेह मायावती की जिंदगी और करिअर का सबसे अहम मोड़ था। प्रशासनिक सेवा में निश्चिंतताओं से भरा एक कैरिअर छोड़कर उन्हें एक राजनीतिक भविष्य की अनिश्चिंतताओं में छलांग लगानी थी। मगर कांशीराम की दूरदृष्टि में कुछ ऐसा था कि अपने व्यावहारिक स्वभाव के बावजूद मायावती ने ये विकल्प चुनने का फैसला किया। उन्हें पहली बार ऐसा महसूस हुआ था कि वो जितना सोचती थीं उससे कहीं ज्यादा बड़ी हैं। उन्हें लगा कि राजनीति के असंभावनाओं भरे सफर में नियम-कायदों से चलने वाली सरकारी सेवा के मुकाबले कहीं ज्यादा रोमांच है।

कांशीराम और उनकी राजनीति के प्रति मायावती का जुनून प्रभुदास को पसंद नहीं आ रहा था। इसे समझा भी जा सकता था क्योंकि 70 और 80 के दशक की शुरुआत में अलग से दलित राजनीति का कोई भविष्य नजर नहीं आता था। उन्होंने पहले मायावती को समझाने की कोशिश की कि वह राजनीतिक सक्रियता से किनारा कर लें। मगर जब उन्हें लगा कि उनकी नहीं चलेगी तो उन्होंने मायावती को एक दूसरा सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि अगर वो राजनीति में जाने के लिए इतनी ही कृतसंकल्प हैं तो उन्हें कांग्रेस जैसी किसी स्थापित पार्टी को चुनना चाहिए जो कहीं ज्यादा संसाधनों वाली राष्ट्रीय पार्टी है।

प्रभुदास ने एक बार उनसे कहा था कि अगर वह कांशीराम जैसे नेताओं के साथ रहेंगी तो नगर निगम का चुनाव भी नहीं जीत पाएंगी।कांशीराम के प्रति प्रभुदास का द्वेष और उनके कटाक्ष भी बढ़ते गए और मायावती के इरादे की मजबूती भी। एक दिन वो चिल्लाए 'या तो तुम कांशीराम से मिलना और उनकी बेकार की राजनीति छोड़कर फिर से आईएएस की तैयारी करो या फिर मेरा घर छोड़ दो। तैश में आकर मायावती ने घर छोड़ने का फैसला तो ले लिया मगर उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि वो क्या करें। उस समय कांशीराम दिल्ली में नहीं थे इसलिए उनसे भी संपर्क नहीं हो पा रहा था। हताशा में उन्होंने करोलबाग स्थित बामसेफ कार्यालय में शरण ली जो उनके पिता के इंद्रपुरी स्थित घर से ज्यादा दूर नहीं था। सौभाग्य से कांशीराम जल्द ही वापस आ गए।

मायावती ने उन्हें बताया कि उनके और उनकी राजनीति के लिए उन्होंने अपना घर दिया है. और आंदोलन के लिए अपनी जिंदगी समर्पित करने का फैसला किया है। जीवनी में मायावती स्वीकार करती हैं कि जब वह घर छोड़कर कांशीराम द्वारा किराए पर लिए कमरे में रहने लगीं तो साथी कार्यकर्ताओं में तमाम अफवाहें फैल गई थीं।

आखिरकार जब ये बहुत असहनीय हो गया तो एक दिन मायावती कांशीराम के पास गईं। उन्होंने कहा कि बेहतर यही है कि वो अपनी जमा तनख्वाह से एक अलग कमरा खरीद लें। (उन दिनों दिल्ली की निम्नमध्यवर्गीय कालोनियों में कोई मकान मालिक किसी अविवाहित लड़की को किराये पर कमरा देने की सोच भी नहीं सकता था।) कांशीराम पर भी काफी दबाव था।

जैसे-जैसे मायावती का कद बढ़ रहा था उनके विरोधी आरोप लगा रहे थे कि कांशीराम मायावती को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं। दूसरे नेता और पत्रकार भी कहते थे कि मायावती की एकमात्र मजबूती कांशीराम का उनके प्रति लगाव है और इसके बिना मायावती कुछ भी नहीं। इसलिए 2003 में जब मस्तिष्क पक्षाघात के चलते कांशीराम पूरी तरह से लाचार हो गए तो कहा गया कि अब मायावती के अच्छे दिन भी खत्म हो गए। मगर कांशीराम की निष्क्रियता और मायावती की अगुवाई में बसपा ने पहले से भी ज्यादा तरक्की की तो राजनीति और मीडिया के गलियारों में लोग 'बहनजी' की प्रतिभा को स्वीकार करने लगे।


कांशीराम और मायावती के बीच एक निजी भावनात्मक संबंध था। उनके करीबी रहे लोग भी इसकी पुष्टि करते हैं। अक्सर उनके झगड़ों की तीव्रता भी उनके बीच के इस भावनात्मक संबंध को रेखांकित कर देती थी। पुराने सहयोगियों के मुताबिक ये झगड़ा कई बार तो इतना तेज होता था कि उनके आस-पास मौजूद लोग घबरा जाते थे। कांशीराम को उनके उग्र स्वभाव, तीखी भाषा और अपने हाथों के इस्तेमाल के लिए जाना जाता रहा है।

मगर मायावती भी उन्हीं की शैली में उनका मुकाबला करती थीं। हर तरह से देखा जाए तो बहस में जीत हमेशा उनकी ही होती थी।मायावती कांशीराम को लेकर किसी भी चीज से ज्यादा अधिकार की भावना रखती थीं। कांशीराम के बेहद करीबी लोगों से उन्हें खतरा महसूस होता था। कई ऐसे लोग हैं जिन्हें कांशीराम पार्टी में लाये और जिन्हें मायावती के कारण असमय ही पार्टी छोड़नी पड़ी। हालांकि ये अजीब सी बात है कि कांशीराम शुरुआत से ही मायावती को बेहद सम्मान की नजर से देखते थे और हमेशा उनकी तारीफ करते थे मगर मायावती लंबे समय तक उन्हें लेकर असुरक्षा महसूस करती रहीं। ऐसा तब तक रहा जब तक उन्होंने पार्टी पर एक तरह से पूरा नियंत्रण स्थापित नहीं कर लिया।

पुराने सहयोगी याद करते हैं कि जब भी कांशीराम अपनी बैठक में किसी व्यक्ति के साथ बैठकर बातें कर रहे होते थे तो मायावती हर पांच मिनट बाद किसी न किसी बहाने से वहां आती रहती थीं। बसपा के ये दोनों दिग्गज मिजाज़ के मामले में कुछ अलग भी थे। बेहद सामाजिक किस्म के कांशीराम नेताओं और पत्रकारों के साथ बात करना काफी पसंद करते थे। जिन लोगों के साथ वो विचार और सिद्धांतों की चर्चा करते थे उन पर भरोसा भी करते थे। उधर मायावती शुरुआत से अंतर्मुखी प्रवृत्ति की रहीं और उन्हें राजनीतिक चर्चाएं समय की बर्बादी लगती थी।

कांशीराम के मित्रों और परिचितों में शायद ही ऐसा कोई रहा हो जिस पर उन्होंने भरोसा किया हो। वह ये जानने में काफी समय खर्च करती थी कि कांशीराम किससे मिलते हैं और क्या बातें करते हैं। बाद में अगर कांशीराम उन्हें इसके बारे में नहीं बताते थे तो वह बैठक में हुई कई बातें बता कर उन्हें हैरान कर देती थीं। फिर वो उनसे खूब लड़ती थीं कि वो उनसे बातें छिपाते हैं।


(मायावती की जीवनी "बहनजीः ए पोलिटिकल बायोग्राफी आफ मायावती" इसी हफ्ते पेंगुइन बुक्स द्वारा प्रकाशित हुई है.लेखक- अजय बोस)

Sunday, June 1, 2008

मायावती की माया पुराण

बसपा सुप्रीमॊं पर आठ सौ पेज का माया पुराण लिखा गया है जिसमें उन्हें दलितॊं की मसीहा के तौर पर पेश करने की कॊशिशि की गई है। माया पुराण के लेखक एमएल श्रीवास्तव वर्ण व्यवस्था कॊ समाप्त करने की बात कहते हैं।

आज उन्हॊंने माया पुराण के २०० पेज दिखाए। उन्हॊंने बताया कि चार वेद १८ पुराण व २०० सौ उपनिषदॊं का अध्ययन करने के बाद कर्ण प्रयाग और देव प्रयाग की गुफाऒं में उन्हॊंने एक वर्ष गुजारे और वहीं यह पुराण लिखा।

माया पुराण लिखने के बारे में इसके लेखक कहते हैं कि कांशीराम उत्तर प्रदेश में बसपा कॊ पूर्ण बहुमत से सत्ता में नहीं पंहुचा पाए। यह काम मायावती ने कर दिखाया। इसिलए उनके उपर यह पुराण लिखी गई है।पुराण का विमॊचन कौन करेगा अभी यह तय नहीं है लेकिन दावे किए जा रहे हैं कि माया पुराण की एक लाख प्रतियां २३ मई कॊ लॊगॊं के हाथ में हॊगी।

माया पुराण की भूमिका के तीसरे पेज के तीसरे पैरा में लिखा गया है कि भद्र समाज के अधिकांश सुधारक पाश्चात्य शिछा संस्कृति और आचार विचार से पूर्णत प्रभावित थे लेकिन समस्त कार्यकलाप अपनी जातियॊं और वर्गॊं के सामाजिक व धार्मिक सुधारॊं तक ही सीमित थे।माया पुराण की भूमिका के छठें पेज के पहले पैराग्राफ में लिखा है

पुरा्तत्ववेत्ता व इतिहासकार मानते हैं कि सिंधु घाटी या हड्डपा मॊहनजॊदडॊं की नगरीय संस्कृति एक पूर्ण विकासित भारत मूल की अनार्य संस्कृति थी। यदि ऋगवेद के आधार पर इसे परखा जाए तॊ आर्य इसके विनाश या पतन के कारण रहे हॊंगे।इसी पैराग्राफ की सतवी लाइन में उल्लेख है कि इंद्र जॊ आर्य संस्कृति का नेता है उससे प्रार्थना की गई थी कि वह आर्य और दलितॊं में भेद करें।दास कॊ दैत्य और दस्यु का पर्यावाची बताया गया है।माया पुराण के दलित मुक्ति के स्वर नामक तीसरे अध्याय में पेज ६९ के अंतिम पैरा में कहा गया है कि मुसलिम और मुगल जातियॊं के रहते इस्लाम ने भी दलितॊं कॊ अपनी ओर आकृष्ठ किया।

यही नहीं राजपुतॊं ने भी बढ़चढ़ कर शासक जातियॊं से अपने खूनी रिश्ते जॊड़ने में कॊई कॊर कसर नहीं छॊड़ी।अंबेडकर आंदॊलन नामक माया पुराण के चौथे अध्याय के पेज ९२ के दूसरे पैराग्राफ में मूलनायक के संपादन का जिक्र है।३१ जनवरी १९२० कॊ मूलनायक पत्रिका के प्रथम अंक के मनॊगत शिर्षक अंबेडक के लेख का हवाला देते हुए कहा गया है कि हिंदू धर्म में समाविष्ट जातियां ऊंच नीच की भावना से प्रेरित हैं।

उच्च वर्ग में पैदा व्यक्ति में कितने दुर्गुण हॊ वह उच्च ही कहलाएगा और नीच जाति में पैदा व्यक्ति किताना भी गुणवान हॊ नीच ही कहा जाएगा।दूसरे आपस में रॊटी बेटी का व्यवहार न हॊने से आत्मीयता नहीं बढ़ती और एक जाति दूसरे से टूट जाति है।माया पुराण के अध्याय पांच में अंबेडकर और दलितॊं की पीड़ा का जिक्र है।

पेज १५० के दूसरे और तीसरे पैरा में कहा गया है कि सात नवंबर १९३८ कॊ जब बंबई कामगार संगठनॊं की संयुक्त संघर्ष समिति ने मजदूर हड़ताल की तॊ अंबेडकर ने उसे सफल बनाने में पूरी ताकत लगा दी। जबकि अनुशासन भंग की कार्रवाई से डरकर टेड यूनियन कांग्रेस तथा एमएन राय के अनुयायी और कांग्रेस समाजवादी नेताओं ने अपना हाथ खींच लिया।इससे पता चलता है कि सवर्ण हिंदू किसी भी सामाजिक परिवर्तन और मजदूरॊं के हित संवर्धन के प्रति मीठी बातें तॊ करते हैं लेकिन जब कॊई सक्रिय कदम उठाए जाते हैं तॊ वह पीछे हट जाते हैं।

अंशुमान शुक्ला, लखनऊ