Friday, December 26, 2008

जल्लादों की बस्ती में हिफाजत की बातें...!


यह वैसे ही है जैसे फांसी घर से जीने की उम्मीदें रखना या हिफाजत की बातें जल्लादों से करना..उत्तर प्रदेश में बसपाई सत्ता मदांध में हैं और नौकरशाही पट्टा बांधे पालतू पशु से भी गई बीती। ...और हम आप कायर भेंड़ों से बदतर। एक इंजीनियर की हत्या का वहशियाना तौर-तरीका खुद ही यह चीख-चीख कर बता रहा है कि धन वसूली का हवस कितनी घिनौनी शक्ल ले चुका है। इस हवस और मुंबई में हमला करने वाले आतंकियों के हवस में क्या कोई फर्क पाते हैं आप? सत्ता व्यवस्था पर काबिज नेता एक इंजीनियर को पीट-पीट कर महज इसलिए मार डाले कि उसने 'उपहार-बंदोबस्त’ में कोताही क्यों की, तो क्या यह देश में बाहर से सेंध लगा रहे आतंकियों से ज्यादा घातक नहीं है?

प्रदेश भर में विधायक और नौकरशाह मिल कर 'बर्थ-डे गिफ्ट’ के लिए जो वसूली का आपराधिक अभियान चलाए बैठे हैं, वह जिस हवस का परिणाम है, क्या आप उसे देशद्रोही वहशियों से कहीं अधिक नुकसानकारी नहीं मानते?बसपा के विधायक शेखर तिवारी ने एक इंजीनियर को किस तरह मारा, समाचार चैनलों पर मरहूम इंजीनियर की लाश की बुरी दशा देखकर उसका अंदाजा लग गया होगा। इसी हत्याकांड पर बसपा के प्रवक्ता बन कर गुर्रा रहे काबीना सचिव शशांक शेखर सिंह या पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह या दूसरे नौकरशाहों की टीवी पर पोर पोर दिख रही वफादार नस्ल भी तो व्यवस्था की दुर्दशा की ही अभिव्यक्ति दे रही है! मुख्यमंत्री मायावती के इन वफादारों के चेहरों पर किसी विधायक द्वारा बर्बरतापूर्वक एक इंजीनियर को मार डाले जाने की चिंता नहीं थी बल्कि वे इस चिंता में लगातार सफाई दे रहे थे कि यह हत्या मुख्यमंत्री के जन्मदिन पर उपहार पहुंचाने की माफियाई परम्परा निभाने की विवशता में नहीं हुई। प्रदेश में शासन चलाने के नाम पर मुख्यमंत्री का भांड गायन करने वाले ये छद्म नौकरशाह यह बताते हुए तनिक शर्माते भी नहीं कि विधायक उस इंजीनियर को मरी हुई हालत में थाने पर छोड़ गया।

यह एक बात शासन-प्रशासन के बड़े लोगों के रखैलिएपन की सनद देती है। बात बहुत कटु लग सकती है। तो क्या अब भी कटु न लगे? चरम अराजकता की स्थितियों की स्वीकार्यता न केवल ऐसे सियासी और नौकरशाही वेशधारी असामाजिक तत्वों के सिर उठाते चले जाने की आजादी देता है बल्कि नागरिकों के कायर-क्लीव होने की भी तो घोषणा करता है! यही तो फर्क है मुंबई वालों और उत्तर प्रदेश वालों में... कि मुंबई वालों पर फर्क पड़ता है और उत्तर प्रदेश वालों पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता! देश समाज के अंदर घुसे छिपे बैठे भितरघातियों के खिलाफ उठ खड़े होना नागरिकों के अधिक साहसी होने की मांग करता है... या यह कहें कि अब वक्त की भी यही मांग है। मुंबई-जन-प्रतिक्रिया ने यह संदेश तो दिया ही है कि नागरिकों की मुट्ठी में ही असली ताकत है। लेकिन इसका अहसास बड़ी बात है। जो उत्तर प्रदेश और उसकी राजधानी लखनऊ के लोगों में बिल्कुल नहीं है।

लोक और लोकतंत्र की यह अजीबोगरीब चारित्रिक हकीकत है उत्तर प्रदेश की। पूरी व्यवस्था सियासत के इर्द-गिर्द परिक्रमा-रत है और पूरी सियासत अपराध-रत। इसका प्रतिबिंब पूरा प्रदेश देख रहा है, भुगत रहा है, पर मौन है। यह जो मारा जा रहा है और यह जो मौन साधे बैठा है... वह मतदाता है...। जो मनोवैज्ञानिक विकृतियों और आपराधिक चरित्रों की गिरोहबंदी को बहुमत देता है और खुद उसका शिकार हो जाता है। ठीक वैसे ही कि जैसे राक्षस आता है और हर दिन किसी को अपना शिकार बनाता है... और हम समझते हैं कि हम सुरक्षित हैं। यही मनोविज्ञान हमें कायर और भेंड़ बना रहा है। ऐसे मतदाता से नैतिक साहस की उम्मीद कैसी जिसने चुनाव में सही जनप्रतिनिधि को कभी चुना नहीं, अपनी जाति को चुना, अपने धर्म को चुना या पैसे पर बिक जाना चुना।महात्मा गांधी से लेकर जयप्रकाश नारायण तक यह बोलते चले गए कि जनप्रतिनिधियों को वापस बुला लेने का जनता को संवैधानिक अधिकार होना चाहिए। मुंबई हादसे की उत्तरकालिक जन-प्रतिक्रियाओं में भी एक बार फिर यह बात उभरी। लेकिन जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार पर होने वाली बहस आज तक बकवास ही साबित हुई है। हालांकि जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार की वकालत बेमानी ही है। जिस दिन मतदाता को नैतिक मूल्यों को सामने रख कर अपना प्रतिनिधि चुनना आ जाएगा उसी दिन जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार पर बहस अप्रासंगिक हो जाएगी...News Published in Daily News Activist on December 25, 2008

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