Tuesday, June 3, 2008

कांशीराम की जासूसी करती थीं मायावती

कांशीराम अपनी बैठक में किसी के साथ बातें कर रहे होते थे तो मायावती हर पांच मिनट बाद किसी न किसी बहाने से वहां आती रहती थीं।


ये 1977 के सर्दियों की एक रात थी। घर में सभी सोने की तैयारी कर रहे थे और 21 साल की यह शिक्षिका जिसने एलएलबी प्रथम वर्ष के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया थाए अपनी किताबों में डूबी सिविल सेवा की तैयारी में तल्लीन थी। तभी अचानक किसी ने दरवाजा खटखटाया।

ये थोड़ा अजीब बात थी क्योंकि इतनी रात गए किसी दोस्त या रिश्तेदार के आने की कोई संभावना नहीं थी। जब मायावती ने दरवाजा खोला तो वो ये देखकर हैरान हो गईं कि वहां बामसेफ नेता कांशीराम खड़े थे। कांशीराम को वह दलित बैठकों में कई बार देख चुकी थीं मगर सलवटदार कपड़ों और गले में मफलर लपेटे इस दलित नेता के साथ ये उनकी पहली मुलाकात थी।

मायावती और उनका परिवार कांशीराम के अप्रत्याशित आगमन से रोमांचित हो गया। देश के शहरी दलित समुदाय में कांशीराम तब तक एक जाना-माना नाम बन चुके थे। कांशीराम सीधे मायावती से मुखातिब हुए। उनकी मेज पर बिखरी किताबों के ढेर को देखकर उन्होंने पूछाए इतनी सारी किताबें पढ़ रही हो! इतना पढ़कर क्या बनना चाहती हो? मायावती ने कहा सिविल सेवा पास कर कलेक्टर बनना चाहती हूं ताकि ढंग से अपने समुदाय की सेवा कर सकूं।

उनके पिता ने भी डीगें हांकनी शुरू की कि किस तरह वो अपनी बेटी पर ध्यान दे रहे हैं ताकि वो बड़ी अफसर बनकर दलित समुदाय का गर्व बन सके। मगर कांशीराम ने प्रभुदास की बात पर ध्यान नहीं दिया। फिर से मायावती से मुखातिब होते हुए वह बोले "मुझे लगता है कि तुम बहुत बड़ी गलती कर रही हो।" और फिर कांशीराम ने एक ऐसी बात कही जिसे सुनकर मायावती की रग-रग में बिजली दौड़ गई और प्रभुदास को तो जैसे अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ।

'तुम्हारा साहस, दलित हितों के लिए समर्पण और दूसरी कई खूबियां मेरी नजर में आई हैं। मैं तुम्हें एक दिन इतना बड़ा नेता बना सकता हूं कि एक नहीं बल्कि कई कलेक्टर तुम्हारे सामने लाइन लगाकर हाथों में फाइलें लिए तुम्हारे हुक्म का इंतजार कर रहे होंगे। तब तुम सही मायनों में अपने समुदाय की सेवा कर कर पाओगी." कांशीराम ने भविष्यवाणी की। उस रात कांशीराम ने मायावती के साथ एक घंटे तक कई सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा की। उस एक घंटे ने मायावती की दुनिया बदलकर रख दी। अचानक ही उनके जीवन का उद्देश्य बदल गया।

कांशीराम तो इसके बाद चले गए मगर उनके शब्द मायावती के मन में देर तक गूंजते रहे। उन्हें इस तर्क में दम नजर आया कि राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के राज में एक सरकारी अफसर एक सीमा तक ही कुछ कर सकता है। मगर सवाल ये था कि क्या वो वाकई में इन उम्मीदों पर खरी उतर सकती हैं।


ये निस्संदेह मायावती की जिंदगी और करिअर का सबसे अहम मोड़ था। प्रशासनिक सेवा में निश्चिंतताओं से भरा एक कैरिअर छोड़कर उन्हें एक राजनीतिक भविष्य की अनिश्चिंतताओं में छलांग लगानी थी। मगर कांशीराम की दूरदृष्टि में कुछ ऐसा था कि अपने व्यावहारिक स्वभाव के बावजूद मायावती ने ये विकल्प चुनने का फैसला किया। उन्हें पहली बार ऐसा महसूस हुआ था कि वो जितना सोचती थीं उससे कहीं ज्यादा बड़ी हैं। उन्हें लगा कि राजनीति के असंभावनाओं भरे सफर में नियम-कायदों से चलने वाली सरकारी सेवा के मुकाबले कहीं ज्यादा रोमांच है।

कांशीराम और उनकी राजनीति के प्रति मायावती का जुनून प्रभुदास को पसंद नहीं आ रहा था। इसे समझा भी जा सकता था क्योंकि 70 और 80 के दशक की शुरुआत में अलग से दलित राजनीति का कोई भविष्य नजर नहीं आता था। उन्होंने पहले मायावती को समझाने की कोशिश की कि वह राजनीतिक सक्रियता से किनारा कर लें। मगर जब उन्हें लगा कि उनकी नहीं चलेगी तो उन्होंने मायावती को एक दूसरा सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि अगर वो राजनीति में जाने के लिए इतनी ही कृतसंकल्प हैं तो उन्हें कांग्रेस जैसी किसी स्थापित पार्टी को चुनना चाहिए जो कहीं ज्यादा संसाधनों वाली राष्ट्रीय पार्टी है।

प्रभुदास ने एक बार उनसे कहा था कि अगर वह कांशीराम जैसे नेताओं के साथ रहेंगी तो नगर निगम का चुनाव भी नहीं जीत पाएंगी।कांशीराम के प्रति प्रभुदास का द्वेष और उनके कटाक्ष भी बढ़ते गए और मायावती के इरादे की मजबूती भी। एक दिन वो चिल्लाए 'या तो तुम कांशीराम से मिलना और उनकी बेकार की राजनीति छोड़कर फिर से आईएएस की तैयारी करो या फिर मेरा घर छोड़ दो। तैश में आकर मायावती ने घर छोड़ने का फैसला तो ले लिया मगर उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि वो क्या करें। उस समय कांशीराम दिल्ली में नहीं थे इसलिए उनसे भी संपर्क नहीं हो पा रहा था। हताशा में उन्होंने करोलबाग स्थित बामसेफ कार्यालय में शरण ली जो उनके पिता के इंद्रपुरी स्थित घर से ज्यादा दूर नहीं था। सौभाग्य से कांशीराम जल्द ही वापस आ गए।

मायावती ने उन्हें बताया कि उनके और उनकी राजनीति के लिए उन्होंने अपना घर दिया है. और आंदोलन के लिए अपनी जिंदगी समर्पित करने का फैसला किया है। जीवनी में मायावती स्वीकार करती हैं कि जब वह घर छोड़कर कांशीराम द्वारा किराए पर लिए कमरे में रहने लगीं तो साथी कार्यकर्ताओं में तमाम अफवाहें फैल गई थीं।

आखिरकार जब ये बहुत असहनीय हो गया तो एक दिन मायावती कांशीराम के पास गईं। उन्होंने कहा कि बेहतर यही है कि वो अपनी जमा तनख्वाह से एक अलग कमरा खरीद लें। (उन दिनों दिल्ली की निम्नमध्यवर्गीय कालोनियों में कोई मकान मालिक किसी अविवाहित लड़की को किराये पर कमरा देने की सोच भी नहीं सकता था।) कांशीराम पर भी काफी दबाव था।

जैसे-जैसे मायावती का कद बढ़ रहा था उनके विरोधी आरोप लगा रहे थे कि कांशीराम मायावती को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं। दूसरे नेता और पत्रकार भी कहते थे कि मायावती की एकमात्र मजबूती कांशीराम का उनके प्रति लगाव है और इसके बिना मायावती कुछ भी नहीं। इसलिए 2003 में जब मस्तिष्क पक्षाघात के चलते कांशीराम पूरी तरह से लाचार हो गए तो कहा गया कि अब मायावती के अच्छे दिन भी खत्म हो गए। मगर कांशीराम की निष्क्रियता और मायावती की अगुवाई में बसपा ने पहले से भी ज्यादा तरक्की की तो राजनीति और मीडिया के गलियारों में लोग 'बहनजी' की प्रतिभा को स्वीकार करने लगे।


कांशीराम और मायावती के बीच एक निजी भावनात्मक संबंध था। उनके करीबी रहे लोग भी इसकी पुष्टि करते हैं। अक्सर उनके झगड़ों की तीव्रता भी उनके बीच के इस भावनात्मक संबंध को रेखांकित कर देती थी। पुराने सहयोगियों के मुताबिक ये झगड़ा कई बार तो इतना तेज होता था कि उनके आस-पास मौजूद लोग घबरा जाते थे। कांशीराम को उनके उग्र स्वभाव, तीखी भाषा और अपने हाथों के इस्तेमाल के लिए जाना जाता रहा है।

मगर मायावती भी उन्हीं की शैली में उनका मुकाबला करती थीं। हर तरह से देखा जाए तो बहस में जीत हमेशा उनकी ही होती थी।मायावती कांशीराम को लेकर किसी भी चीज से ज्यादा अधिकार की भावना रखती थीं। कांशीराम के बेहद करीबी लोगों से उन्हें खतरा महसूस होता था। कई ऐसे लोग हैं जिन्हें कांशीराम पार्टी में लाये और जिन्हें मायावती के कारण असमय ही पार्टी छोड़नी पड़ी। हालांकि ये अजीब सी बात है कि कांशीराम शुरुआत से ही मायावती को बेहद सम्मान की नजर से देखते थे और हमेशा उनकी तारीफ करते थे मगर मायावती लंबे समय तक उन्हें लेकर असुरक्षा महसूस करती रहीं। ऐसा तब तक रहा जब तक उन्होंने पार्टी पर एक तरह से पूरा नियंत्रण स्थापित नहीं कर लिया।

पुराने सहयोगी याद करते हैं कि जब भी कांशीराम अपनी बैठक में किसी व्यक्ति के साथ बैठकर बातें कर रहे होते थे तो मायावती हर पांच मिनट बाद किसी न किसी बहाने से वहां आती रहती थीं। बसपा के ये दोनों दिग्गज मिजाज़ के मामले में कुछ अलग भी थे। बेहद सामाजिक किस्म के कांशीराम नेताओं और पत्रकारों के साथ बात करना काफी पसंद करते थे। जिन लोगों के साथ वो विचार और सिद्धांतों की चर्चा करते थे उन पर भरोसा भी करते थे। उधर मायावती शुरुआत से अंतर्मुखी प्रवृत्ति की रहीं और उन्हें राजनीतिक चर्चाएं समय की बर्बादी लगती थी।

कांशीराम के मित्रों और परिचितों में शायद ही ऐसा कोई रहा हो जिस पर उन्होंने भरोसा किया हो। वह ये जानने में काफी समय खर्च करती थी कि कांशीराम किससे मिलते हैं और क्या बातें करते हैं। बाद में अगर कांशीराम उन्हें इसके बारे में नहीं बताते थे तो वह बैठक में हुई कई बातें बता कर उन्हें हैरान कर देती थीं। फिर वो उनसे खूब लड़ती थीं कि वो उनसे बातें छिपाते हैं।


(मायावती की जीवनी "बहनजीः ए पोलिटिकल बायोग्राफी आफ मायावती" इसी हफ्ते पेंगुइन बुक्स द्वारा प्रकाशित हुई है.लेखक- अजय बोस)

1 comment:

Ravinder Verma said...
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