कहा जा रहा है कि मायावती ने उत्तर प्रदेश में दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम मतदाता को एक साथ लाकर कांग्रेस जैसा आधार हासिल कर लिया है। लेकिन दोनों में बुनियादी अंतर ये है कि कांग्रेस से लोग रहमोकरम की उम्मीद रखते थे, जबकि मायावती के साथ वो सत्ता में हिस्सेदारी की हसरत से आए हैं। ये उत्तर प्रदेश की राजनीति में पिछले दो दशकों में आया बहुत बड़ा परिवर्तन है।
अब बहन मायावती के सामने सबसे बड़ी चुनौती ये है कि वे दबे-कुचले, असुरक्षित और परेशान लोगों की सत्ता में हिस्सेदारी की हसरत को आगे बढ़ाती हैं या उनके साथ रहमोकरम की राजनीति करती है। सत्ता में हिस्सेदारी का कोई मॉडल अभी तक अपने देश में है नहीं। हां, रहमोकरम की राजनीति में तमिलनाडु के एम करुणानिधि ने एक शानदार मॉडल पेश कर रखा है।
डीएमके सरकार के एक साल पूरा करने पर करुणानिधि ने इस रहमोकरम का पूरा ब्यौरा अखबारों में छपवाया है। उनके कुछ रहमों पर गौर कीजिए : दो रुपये किलो के भाव चावल, हफ्ते में बच्चों को तीन अंडे, सभी जरूरतमंद परिवारों को मुफ्त कलर टीवी, गरीब लड़कियों को शादी के लिए 15,000 रुपए का अनुदान, गैस कनेक्शन के साथ गैस स्टोव मुफ्त...आदि-इत्यादि।
अवाम को खैरात बांटने की करुणानिधीय राजनीति का ही विस्तार है कि हुजूर की नाराजगी के चलते मंत्री पद से हाथ धोनेवाले दयानिधि मारन ने 3 जून को उनके जन्मदिन के मौके पर सभी मोबाइलधारकों को रोमिंग चार्जेज खत्म करने की खैरात देने का इरादा बना रखा था।
मायावती चाहें तो करुणानिधि की दिखाई इस राह पर चलकर गरीबों को खुश कर सकती हैं। वो चाहें तो उत्तर प्रदेश के औद्योगिक विकास के नाम पर अपनी सरकार को मुलायम-अमर सिंह की तर्ज पर अनिल अंबानी और सुब्रतो रॉय जैसी बिजनेस हस्तियों का एजेंट बना सकती हैं। या, बुद्धदेव भट्टाचार्य की तरह राज्य में टाटा या सलीम ग्रुप के स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन खुलवा सकती हैं।
ये अलग बात है कि इस तरह के विकास के नाम पर किसानों से उनकी आजीविका के इकलौते साधन, जमीन को छीन लिया जाएगा और कॉरपोरेट घरानों को हजारों करोड़ की सब्सिडी दी जाएगी।
विकास का एक और तरीका मायावती चाहें तो अपना सकती हैं और वो है अधिक से अधिक लोगों को रोजगार देनेवाला, जन-भागीदारी वाला औद्योगिक विकास। इसके लिए गांव पंचायतों को सक्रिय करना पड़ेगा। सरकारी पैसे की राजनीतिक लूट को रोकना होगा।
प्रदेश की विशेषता के आधार पर रोजगार-प्रधान उद्योगों को चुनना होगा। गांधीजी की तर्ज पर लघु और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना होगा। लेकिन ये तरीका बहनजी के लिए काफी मुश्किल होगा।
बाबासाहब अंबेडकर तक गांधी की इस आर्थिक सोच के खिलाफ रहे हैं। वैसे भी, ग्लोबीकरण के समर्थक बहनजी से पक्की उम्मीद पाले बैठे हैं कि वो विदेशी पूंजी और कॉरपोरेट घरानों का जमकर स्वागत करेंगी, क्योंकि दलितों को आगे बढ़ने के हर उपलब्ध साधन को अपनाना है।
दलितों के लिए हिंदी प्रेम या स्वदेशी का कोई मतलब नहीं होता। उन्हें अगर अंग्रेजी आगे बढ़ाएगी तो वे अंग्रेजी ही अपनाएंगे और मल्टी नेशनल कंपनियां इज्जत के साथ अच्छा पैसा देंगी तो देशी कंपनियों के घुटन भरे माहौल में वो क्यों जाएंगे!
Tuesday, June 10, 2008
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