Sunday, June 29, 2008

हर माह हसरतों का लहू चूसता रहा...

चारो तरफ बिखरे पत्थरों और हरे पेड़-पौधों की आत्माएं, धराशाई ईमारतों और सपनों के मलबे, सरकारी बुल्डोजरों से ध्वस्त होते निर्माण और न्याय, डायनामाइट से उड़ाया जाता राज-धन और लोक-मन, और राजपथ पर आत्मसमर्पित लोकतंत्र और नैतिकता... यह लखनऊ है या कि बगदाद?चारो तरफ भूख और मरी के बीच गिद्ध-राजनीति का त्रासद शोर, हूटरों और सायरनों की फासीवादी हुआं-हुआं के बीच किसानों के आत्म-उत्सर्ग की सांय-सांय, महारानी को धूल से बचाने के लिए बार-बार धुलती सड़क के बीच प्यास के रेगिस्तान में घिसटती आम जिंदगी... यह उत्तर प्रदेश है या कि सोमालिया?

चारों तरफ सरकारी ढिंढोरचियों के कर्णभेदी प्रसारणों के बीच लोकतांत्रिक स्वर के उच्चारण पर मर्मभेदी उत्पीड़न, राज प्रायोजित मुजरों के लिए प्रेक्षागृह और जन आयोजन की पहल करने वालों को यातनागृह, खुद की प्रतिमा स्थापित करने के राजतंत्रीय आयोजनों की हद और लोकतंत्र का प्रतिमान स्थापित करने के लिए तमाम जद्दोजहद...! यह अपना प्रदेश है या कि म्यांमार या कि चीन?इन सवालों के साथ मायावती सरकार का एक साल आज पूरा हो गया। इस एक साल में जो हुआ उसका सच और उस सच पर चस्पा ये सवाल बाकी के चार साल की सिहरन देते हैं। आज किस्म-किस्म के राज-जश्न हो रहे हैं। राज-जश्न पर सवार यक्ष प्रश्न अब जवाब नहीं चाहते, निराकरण मांगते हैं।

राज-प्रचारित छदूम उपलब्धियों के बरक्स असलियत चीख-चीख कर इन सवालों का खोखला जवाब नहीं, ठोस हल मांगती है। हम साल भर की हकीकत का कुछ हिस्सा आपके समक्ष पेश करने का साहस कर रहे हैं, यह जानते-समझते हुए कि हमारे रास्ते में उगा दिए गए हैं कितने ढेर सारे बबूल के जंगल!मायावती के शासन का आज एक साल पूरा हो रहा है। इस एक साल में हुआ क्या?

इस एक साल में आम आदमी की उपलब्धियां क्या रहीं और सत्ताधारिणी की उपलब्धियां क्या रहीं? सरकारी भांड सरकार की उपलब्धियां गिनाएंगे, लेकिन जनता ने इस एक साल में क्या पाया उसकी हम जमीनी समीक्षा तो कर ही सकते हैं। यह हमारा लोकतांत्रिक कर्तव्य है। हम अधिकार की बात करने के फैशन से दूर के हैं।'डेली न्यूज़ ऐक्टिविस्ट’ ने साल भर में सामने आए वे सारे मसले उठाए हैं, जो आम आदमी से जुड़े हैं।

पत्थर की मूर्तियों से राजधानी को पाट देने का मसला हो या केंद्र की बिना सहमति लिए किसानों का 28 हजार 510 हेक्टेयर खेत पाट कर गंगा एक्सप्रेस वे बनाने का मसला। बुंदेलखंड की भुखमरी और किसानों की आत्महत्याओं का मसला हो या छात्रों पर पुलिस फायरिंग, छात्र संघ पर प्रतिबंध और व्यापारियों पर वैट का मसला। विकास प्राधिकरण और नगर निगम के नियम-कानून ध्वस्त कर देने का मसला हो या कानून व्यवस्था से लेकर राजधानी की आबोहवा तक के विध्वंस का मसला। सारे पहलुओं की हमने जमीनी समीक्षा का प्रयास किया है।

इन जरूरी मसलों में लोकतांत्रिक व्यवस्था के अलमबरदार का जन्मोत्सव, अथरेत्सव, उपहारोत्सव, नृत्योत्सव, दंडवतोत्सव और लोकतंत्र का विसर्जनोत्सव निश्चित रूप से शामिल है।दलित मसला भी अहम मसलों में से एक है। दलितों के हित के नारे लगा लगा कर मजबूत बनी बहुजन समाज पार्टी ने जिस तरह रंग बदल कर मनुवाद को अंगीकार किया उससे पार्टी के असली रंग का पता चला। यह साफ हो गया कि कौन से वर्ग का हित साधती है बसपा।

सत्ताधारिणी मायावती के अर्थ-सामर्थ्य का ग्राफ तथाकथित कुलीनवाद की परिधि फाड़ता हुआ ऊपर से ऊपर निकलता चला जा रहा है। 2007 के चुनाव नामांकन पत्र में की गई घोषणा और इस साल के इंकम टैक्स रिटर्न के आय-आकलन को ही सामने रखें तो मुख्यमंत्री मायावती की व्यक्तिगत आय 52 करोड़ से बढ़ कर 60 करोड़ रूपए हो गई है। यह आय मायावती को देश की शीर्ष कमाऊ हस्तियों में शुमार करती है। हम आय के अनधिकृत आंकड़े की कल्पना कर सकते हैं, जिक्र नहीं कर सकते। जन्मोत्सव से लेकर किस्म किस्म के उत्सवों में गिर पड़ने वाले उपहारों के आर्थिक आंकड़ीय आकलन से अधिक जरूरी वे सवाल हैं जो आलीशान उपहारों के कुलीन पैकेटों के नीचे दबे हुए झांकते हैं। जो उपहार देते हैं, वह कौन हैं?

उपहार के एवज में उन्हें क्या फायदे मिलते हैं? प्रदेश का दलित क्या इतना समृद्ध हो चुका है कि वह बेशकीमती उपहार दे सके? पार्टी में पद, प्रतिष्ठा, पैसा, टिकट किस वर्ग को मिल रहा है? सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार के आरोपों पर सफाई पेश करते हुए मुख्यमंत्री मायावती ने विधानसभा के हालिया सत्र में कहा कि उनकी सरकार का कोई भी अफसर, चाहे वह कैबिनेट सचिव हो, प्रमुख सचिव हो, मुख्य सचिव हो या कोई और, इन सबकी बड़ी साफ छवि है और ये अपनी ईमानदारी और प्रतिबद्धता के लिए मशहूर हैं। मायावती ने विधानसभा के भीतर हास्य में यह बात नहीं कही थी। लेकिन उनका यह गंभीर वक्तव्य समाज में कितना हास्य प्रदान करता है, यह उनके चाटुकार नौकरशाह उन्हें थोड़े ही बताएंगे।

प्रतिष्ठित टाइम पत्रिका ने इस पर कहा भी कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की छवि उनके सिपहसालारों और अफसरों के कारण नीचे गिर रही है।जिस प्रदेश की मुख्यमंत्री दलित हितवादी महिला हो, उस प्रदेश में दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं देश भर में सबसे ज्यादा हों, उस हितवाद और वैसी हितवादी कानून-व्यवस्था के बारे में क्या कहा जा सकता है।

मायावती ने 13 मई 2007 को उत्तर प्रदेश की सत्ता संभाली। उस तारीख से 31 मार्च 2008 के बीच दलित महिलाओं से बलात्कार की 271 घटनाएं घटीं। बलात्कार की ये वो घटनाएं हैं जो काफी जद्दोजहद के बाद पुलिस ने दर्ज कीं। इनमें उन घटनाओं को हमने शामिल नहीं किया, जिनकी सूचनाएं अखबार तक पहुंचती हैं पुलिस से दुत्कारे जाने के बाद। तब तक काफी देर हो चुकी होती है। हम उसे जन अदालत के समक्ष जनहित याचिका के बतौर पेश तो करते हैं, लेकिन वे मामले सरकारी दस्तावेजों में शुमार नहीं होते। हम ऐसे ही प्रदेश में रहते हैं, जहां दलित से बलात्कार में पुलिस भी लिप्त रहती है और थाने बूचड़खाने की तरह बलात्कारखाने में तब्दील हो चुके हैं।

अगर हम उन आंकड़ों और घटनाओं को भी सरकारी आंकड़ों में शामिल कर लें तो भयावह दृश्य दिखाई पड़ेगा। मायावती शासन के 10 महीने में 215 दलितों की हत्या हुई। यह चिंतनीय इसलिए भी है क्योंकि यह वो सरकार है जो दलितों के लिए आठ-आठ आंसू रोती है और दूसरा कोई रोता है तो उसे कोसती है... रूखसत हुआ जो साल तो महसूस यूं हुआहर माह हसरतों का लहू चूसता रहा


...प्रभात रंजन दीन

1 comment:

डा. अमर कुमार said...

किस किस को रोयेंगे ?
रोयें या हँसें ?

रामभरोसे चल रहा है...देश ! इसका चरमराना भी दिखेगा..दिन दूर नहीं ।